Trading vs Investing

नए नए लोग जब स्टॉक मार्केट में उतरते हैं, तो उन्हें ट्रेडर और इन्वेस्टर का शब्द काफी बार सुनने को मिलता है। यदि आप स्टॉक मार्केट में इंटरेस्ट रखते हो, या फिर मार्केट को सीखना चाहते हो, तो आपको Trading vs Investing के बारे में आपको पता होना चाहिए। बहुत से लोगों को Trading और Investment का मतलब एक ही लगता है, लेकिन ऐसा नहीं है, दोनों में काफी फर्क है। Trading vs Investing में कौन बेहतर है, आइए जानते हैं।

तो चलिए आज के इस पोस्ट के माध्यम से मैं आपको Trading vs Investing के बीच अंतर बताऊंगा। और इनके कितने प्रकार होते हैं, यह सब जानकारी आपको दूंगा।

Trading vs Investing

Trading vs Investing में आपको पहले ट्रेडिंग के बारे में बताते हैं।

Trading vs Investing

ट्रेडिंग (Trading) क्या है–

ट्रेडिंग में आप किसी भी शेयर को या फिर इंडेक्स को शॉर्ट टर्म (Short term) के लिए Buy करके रखते हैं। इसमें शॉर्ट टर्म से आशय किसी भी शेयर को 1 साल से कम समय के लिए अपने पास होल्ड रखने से है। अब वह चाहे आपका 1 ही दिन हो, एक हप्ता या फिर 3 महीने ही क्यों न हों।

स्टॉक मार्केट (Stock market) में ट्रेडिंग करके आप कितना भी रिटर्न्स जेनरेट कर सकते हैं। इसकी कोई लिमिट नही होती है। लेकिन आपको यह ध्यान में रखना चाहिए, जिसमे आपको जितना अधिक प्रॉफिट देखने को मिलेगा उसमे आपका रिस्क उतना ही अधिक होगा।

जो लोग स्टॉक मार्केट में ट्रेडिंग किया करते हैं, उन्हें ट्रेडर कहा जाता है। जो भी बड़े बड़े ट्रेडर होते हैं, वह ट्रेडिंग करते समय सिर्फ कंपनी के स्टॉक प्राइस के पैटर्न को एनालिसिस करके उनको खरीद और बेचते हैं। ट्रेडर जो होता है, वह कंपनी के फंडामेंटल को चेक नही करता है, क्योंकि ट्रेडिंग करते समय हर सेकंड हर मिनट में उनका प्राइस चेंज होता रहता है। इसलिए वह स्टॉक के पैटर्न और वॉल्यूम को एनालिसिस करते हैं।

ट्रेडिंग के प्रकार (Types of Trading)

ट्रेडिंग एक शॉर्ट टर्म इन्वेस्टमेंट होती है। इसमें आपको बहुत से प्रकार देखने को मिलता हैं। तो चलिए जानते हैं, उन प्रकारों को –

  • यदि कोई भी ट्रेडर कुछ मिनट के लिए किसी भी शेयर को होल्ड करके रखता है, और उसके बाद सेल कर देता है, तो उसे Scalp trading कहते हैं।
  • यदि कोई ट्रेडर केवल एक दिन के अंदर ही शेयर को खरीदता और बेचता है, तो उसे Intraday trading कहा जाता है।
  • यदि कोई ट्रेडर कुछ दिनों के लिए या फिर कुछ सप्ताह के लिए शेयर को होल्ड करके रखता है, और फिर सेल कर लेता है, तो उसे Swing trading कहते हैं।
  • यदि कोई ट्रेडर शेयर्स को कुछ महीने तक होल्ड करके रखता है, और तब सेल करता है, तो उसे Position Trading कहते हैं।

इन्वेस्टमेट (Investment) क्या है–

वह स्टॉक्स जिन्हें की हम लॉन्ग टर्म (Long term) के लिए होल्ड करके रखते हैं। उसे इन्वेस्टमेंट कहा जा सकता है। इसमें लॉन्ग टर्म का आशय 1 साल से अधिक समय से है। और जो लोग इन्वेस्टमेंट करते हैं, उन्हे इन्वेस्टर (Investor) कहा जाता है। इन्वेस्टर को छोटे मोटे मूवमेंट से कोई भी फर्क नहीं पड़ता है। वह एक बार किसी भी शेयर के फंडामेंटल को अच्छे से जान लेते हैं, और उसके बाद उसे लॉन्ग टर्म तक होल्ड करके रखते हैं।

इन्वेस्टर जो होते हैं, वह स्मार्ट वर्क करते हैं। मतलब की वह एक बार शेयर को लेने के बाद उसमे ध्यान नहीं देते और 5, 10 सालों तक उसे होल्ड करके रखते हैं। और जब opportunity दिखती है, तब उसे सेल कर देते हैं। जिस तरह ट्रेडर का ध्यान टेक्निकल एनालिसिस के उप्पर होता है, ठीक उसी तरह से इन्वेस्टर का ध्यान कंपनी के फंडामेंटल एनालिसिस पर होता है। फंडामेंटल एनालिसिस करने से इन्वेस्टर को कंपनी के बारे में एक आइडिया मिल जाता है, कि यह कंपनी फ्यूचर में कहां तक ग्रोथ कर सकती है।

Trading vs Investing

इन्वेस्टिंग के प्रकार (Types of Investing)

इन्वेस्टिंग को मुख्यत हम 2 भागों में बांट सकते हैं।

  • वैल्यू इन्वेस्टिंग (Value investing) – भविष्य में जो इंडस्ट्री ज्यादा डेवलप होगी, उन कंपनियों को पहचानना और उनमें इन्वेस्ट करना वैल्यू इन्वेस्टिंग कहलाता है।
  • ग्रोथ इन्वेस्टिंग (Growth Investing) – ग्रोथ इन्वेस्टिंग का आशय उन कंपनियों में इन्वेस्टिंग करने से है, जो फंडामेंटल काफी स्ट्रांग होती है। जिन इंडस्ट्रियों का मार्केट में नाम भी होता है।

उम्मीद करता हूं, आपको मेरे द्वारा बताए गए Trading vs Investing के बीच क्या अंतर होता है, अच्छे से समझ आ गया होगा।

Rupee Vs Dollar

हाल ही में Rupee Vs Dollar के बीच टक्कर देखने को मिल रही है। एक डॉलर की कीमत 80 रुपये तक पहुंच गई है। संसद में बहुत से बड़े नेताओं का कहना है, कि 2014 के बाद डॉलर के मुकाबले रुपए में अभी तक 25 परसेंट की गिरावट देखी गई है। आखिर Rupee Vs Dollar में रुपए कमजोर क्यों होता चला जा रहा है।

तो चलिए आज मैं आपको इस आर्टिकल के माध्यम से बताऊंगा की आखिर किस वजह से रुपए कमजोर होता चला जा रहा है। और क्या बाकी करेंसी स्टेबल हैं, या फिर उनमें भी गिरावट देखने को मिल रही है।

Rupee Vs Dollar

19 जुलाई 2022 मंगलवार को शुरुआती कारोबार में भारतीय रुपए गिरकर के ऑल टाइम लो पर मनोवैज्ञानिक रूप से महत्वपूर्ण विनिमय दर के स्तर डॉलर के मुकाबले 80 पर पहुंच गया। ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट की माने तो रुपया घटकर 80.06 प्रति डॉलर पर आ गया।

Rupee Vs Dollar

रुपया विनिमय दर क्या है?

अमेरिकी डॉलर की तुलना में रुपये की विनिमय दर जो है, वह अनिवार्य रूप से एक अमेरिकी डॉलर को खरीदने के लिए आवश्यक रुपये की संख्या है। और यह न केवल अमेरिकी सामान को खरीदने बल्कि अन्य सेवा जैसे की कच्चा तेल, कमोडिटी के अन्य इक्विपमेंट आदि की पूरी मेजबानी के लिए एक मुख्य मीट्रिक है, जिसके लिए भारतीय लोगों व कंपनियों को डॉलर की आवश्यकता होती है।

जब भी भारतीय रूपये कमजोर होता है, तो बाहर से सामानों को लेना (आयात करना) महंगा हो जाता है। और यदि कोई भारतीय समानों को बाहर देश बेचता है, (निर्यात करना) तो उसे तो फायदा होगा ही इसके साथ साथ अमेरिका देश को भी इसका फायदा होगा, क्युकी अमेरिका को इसमें कम डॉलर पे करने पड़ेंगे।

डॉलर के मुकाबले रुपया क्यों कमजोर हो रहा। (Rupee Vs Dollar)

सरल शब्दों में कहा जाए तो Rupee Vs Dollar में रुपए इसलिए कमजोर होता चला जा रहा है, क्योंकि बाजार में रुपए की तुलना में डॉलर की मांग ज्यादा है। और यह मांग डॉलर की दो कारणों से बढ़ रही है।

पहला कारण यह है, कि भारत जितना निर्यात करता है, उससे ज्यादा भारत वस्तुओं और सेवाओं का आयात करता है। इसे ही CAD (CURRENT ACCOUNT DEFISIT) कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह है, कि जितना विदेशी मुद्रा भारत में आ रही है, उससे अधिक विदेशी मुद्रा (विशेषकर डॉलर) भारत से बाहर चली जा रही है।

2022 की शुरुआत के बाद से ही जैसे ही यूक्रेन रसिया वॉर चल रहा है, कच्चे तेल और अन्य कमोडिटी के कीमतों में भारी बढ़ोतरी देखने को मिल रही है। जिसकी वजह से भारत का CAD बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। और जो सामान विदेशों से मंगवाया जा रहा है, उसमें भारतीय ज्यादा डॉलर देने की मांग कर रहे हैं।

दूसरा कारण यह है, कि भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश में गिरावट दर्ज की गई है। भारत देश के साथ साथ अधिकांश विकाशील देशों में CAD की प्रवृत्ति होती है। लेकिन विदेशी निवेशकों द्वारा अपना कैपिटल भारत से निकालने में ज्यादा जोर दिया जा रहा है। और यह निकासी 2022 शुरुआती से ही देखने को मिल रही है।

ऐसा इसलिए भी हुआ है, क्योंकि भारत की तुलना में अमेरिका में व्याज दर अधिक तेजी से बढ़ रहा है। अमरीका में उच्च मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए अमेरिका के केंद्रीय बैंक द्वारा बड़ी तेजी से व्याज दर बढ़ा रहा है। जिस वजह से लोग भारतीय शेयर मार्केट (Stock market) में इन्वेस्ट न करके अपने ही देश में इन्वेस्ट कर रहे हैं। ताकि उनको भी एक अच्छा रिटर्न्स मिल सके।

इन दोनों कारणों से ही डॉलर के सामने रूपये की मांग बहुत कम होती जा रही है। यही वजह है, कि डॉलर के मुकाबले रुपए कमजोर होता चला जा रहा है।

केवल रुपए में ही या फिर अन्य मुद्रा में भी आई गिरावट

भारतीय मुद्रा के साथ साथ अन्य करेंसी में भी गिरावट देखने को मिली है। यूरो और जापानी येन समेत अन्य सभी मुद्रा के मुकाबले डॉलर मजबूत हो रहा है। परंतु यूरो जैसी बहुत से मुद्राओं के मुकाबले रुपए में तेजी देखने को भी मिली है।

Difference between Term insurance and Health insurance

देश दुनिया में आ रहे कुछ न कुछ बीमारियों ने लोगों को स्वयं और परिवारजनों के स्वास्थ्य के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया है। क्योंकि हर कोई खुद को और परिवार वालों को सुरक्षित रखना चाहता है। बीमारी के होने पर हेल्थ इंश्योरेंस एक काफी अच्छा विकल्प होता है। फिर भी लोग इस सोच में कन्फ्यूज रहते हैं कि उनको Health insurance and life insurance में से क्या लेना चाहिए।

इसकी मुख्य वजह यह होती है, कि लोगों को Health insurance and life insurance में पूरी जानकारी नहीं होती है। और बहुत बार तो लोगों को जानकारी होती भी है तो वह उसे एक एक्स्ट्रा खर्च मान कर के टाल देते हैं।

तो चलिए आज मैं आपको Health insurance and life insurance में क्या अंतर होता है। कौन सा विकल्प आपके लिए सही रहेगा। और भी बहुत सी चीजें मैं आपको इस आर्टिकल के माध्यम से समझाऊंगा।

Health insurance and life insurance

Health insurance and life insurance में अंतर–

इंश्योरेंस का अर्थ ही जोखिम से सुरक्षा करना होता है। इसमें पॉलिसीधारक व्यक्ति और बीमा कंपनी के बीच एक कॉन्ट्रैक्ट होता है। जिसमें की पॉलिसीधारक व्यक्ति बीमा कंपनी को एक प्रीमियम पे करता है। और उसके बदले में कंपनी उस व्यक्ति को इंश्योरेंस से रिलेटेड सुविधा प्रदान करती है। लेकिन आपको बता दें कि Health insurance and life insurance दोनो ही अलग अलग जरूरतों को पूरा करते हैं। तो चलिए समझते हैं, आखिर इनमें अंतर क्या है।

जीवन बीमा (Life Insurance)–

Life insurance को हिंदी में जीवन बीमा भी कहा जाता है। यह इंश्योरेंस आपके जीवन को प्रोटेक्ट करता है। इस इंश्योरेंस के तहत यदि किसी व्यक्ति की इंश्योरेंस अवधि के से पहले किसी भी वजह से मौत हो जाती है, तो पॉलिसीधारक द्वारा नामित किए गए व्यक्ति को वह धनराशि दे दी जाती है। जितना की इंश्योरेंस में प्रदर्शित की रहती है।

इसके साथ साथ यदि आप पॉलिसी टर्म के लास्ट तक जीवित रहते हैं, तो वह कैश आपको दे दिया जाता है। इसको एक उद्धरण के तौर पर समझते हैं।

माना किसी व्यक्ति ने 30 लाख का सम-इनश्योर्ड का जीवन बीमा करवाया है, और वह व्यक्ति पॉलिसी के अंतिम डेट से पहले ही मर जाता है। तो वह सारा रुपए उसको मिल जायेगा, जिसका नाम की पॉलिसीधारक ने इंश्योरेंस डॉक्यूमेंट में डलवाया होगा। और उस व्यक्ति के मौत के साथ ही प्रीमियम देना बंद हो जाता है। यदि वह व्यक्ति अंतिम तक जिंदा रहता है, तो उस व्यक्ति को बोनस और अन्य फायदों के साथ सम-इनश्योर्ड का पूरा पैसा मिल जाता है।

हेल्थ इंश्योरेंस (Health Insurance)–

हेल्थ इंश्योरेंस में आपकी स्वास्थ्य संबंधी चीजें कवर होती हैं। इसमें आपको टर्म इंश्योरेंस की तरह सुविधा नहीं मिलती है। यदि आपकी पॉलिसी टर्म से पहले मौत हो जाती है, तो इस पर आपको कोई भी धनराशि नहीं दी जाती है। इस इंश्योरेंस के तहत यदि आप कभी बीमार होते हैं, या फिर आपका कभी एक्सीडेंट होता है, तो आपको बीमा कंपनी द्वारा वह सारा खर्च दे दिया जाता है।

इसमें आप चाहें तो आप कंपनी के नेटवर्क के जरिए कैशलेश सुविधा का लाभ उठा सकते हैं। या फिर आप हॉस्पिटल में इलाज कराने के बाद बीमा को क्लेम कर सकते हैं। आज की तारीख में बहुत सी ऐसी कंपनियां भी हैं, जिनमें की आपको कम प्रीमियम देकर के अच्छी सुविधाएं दी जा रही हैं।

प्रीमियम में अंतर–

Health insurance and life insurance में आप चाहे किसी भी इंश्योरेंस की बात करें यदि आपने उस इंश्योरेंस को कम उम्र में शुरू किया है, तो आपका प्रीमियम उतना ही काफी कम होगा।

Health insurance and life insurance में जो लाइफ इंश्योरेंस होता है, उसमें एक बार जो प्रीमियम तय हो जाता है, वही प्रीमियम हमको पॉलिसी टर्म के अंत तक चुकाना होता है। जबकि हेल्थ इंश्योरेंस में समय समय में आपके प्रीमियम बदलते रहते है। इसमें जैसे जैसे आपकी उम्र बढ़ती जायेगी। वैसे वैसे आपका प्रीमियम भी बढ़ता जाता है।

इसका मुख्य कारण यह है, कि जैसे जैसे उम्र बढ़ती जाती जाती है। वैसे वैसे इंसान का बीमार होना भी बढ़ता जाता है।

टर्म इंश्योरेन्स आप किसी छोटे बच्चे के लिए भी खरीद सकते हो। टर्म इंश्योरेंस 50 से अधिक उमर वालों को अधिकतर नही दिया जाता है। जबकि 60 उम्र वालों के लिए भी हेल्थ इंश्योरेंस प्रोवाइड किया जाता है। कम उम्र के बच्चों के लिए हेल्थ प्लान शामिल नहीं किया जाता। इसके साथ साथ यदि आपको हेल्थ इंश्योरेंस खरीदना है, तो आपकी मिनिमम उमर 18 साल तो होनी ही चाहिए।

मेडिकल टेस्ट क्यों है जरुरी–

किसी भी व्यक्ति के बारे में पूरी जानकारी लेने के बाद हेल्थ बीमा कंपनी यह डिसाइड करती है, कि इस व्यक्ति का मेडिकल चेकअप होना है या फिर नहीं। यदि किसी व्यक्ति की उम्र बहुत अधिक या फिर बहुत ही ज्यादा कम होती है, तो उस स्तिथि में बीमा कंपनी मेडिकल चेकअप की सलाह देती है। यह कोई जरूरी नहीं है, कि आपका हैल्थ चेकअप होगा ही होगा। बहुत बार ऐसा भी होता है, कि हेल्थ बीमा कंपनी बिना मेडिकल के ही आपको हेल्थ इंश्योरेंस प्रोवाइड करवा देती है।

यदि हम टर्म इंश्योरेंस की बात करें तो बहुत सी कंपनियां आपको मेडिकल की सलाह नहीं देती और बिना मेडिकल लिए ही आपको इंश्योरेंस प्रोवाइड करवा लेती है। लेकिन आपको इससे सावधान रहना चाहिए। क्योंकि उस समय तो बीमा कंपनी आपसे मेडिकल नहीं मांगती है।

लेकिन जब इंश्योरेंस को क्लेम करने की बारी आती है, तो उस स्तिथि में बीमा कंपनी द्वारा इसको रिजेक्ट या फिर आपसे बहुत सवाल जवाब किए जाते हैं। उनका तब कहना यह होता है, की आपने हमको इंश्योरेंस लेते समय पूरी जानकारी ठीक से नही दी थी। इसलिए आप जब भी टर्म इंश्योरेन्स लें तो इस बात का ध्यान रखें जो कंपनियां आपसे मेडिकल देने को नहीं बोलती हैं। आपको उनसे सावधान रहना चाहिए।

Health insurance and life insurance में कौन बेहतर निवेश–

Health insurance and life insurance दोनो के दोनों ही अपनी अपनी जगह एक अच्छे निवेश (Investment) के साधन हैं। इसमें हेल्थ इंश्योरेंस जो होता है, वह आपके हेल्थ के लिए काफी इंपोर्टेंट है। और टर्म इंश्योरेंस आपके परिवार या फिर प्रियजन को प्रोटेक्ट करने का काम करता है।

Health insurance and life insurance

हेल्थ इंश्योरेंस को देखा जाए तो यह टर्म इंश्योरेंस के मुकाबले कोई अच्छा निवेश नहीं है, क्योंकि इसमें आपका केवल स्वास्थ्य संबंधी चीजों को लिया जाता है। आपके बीमार होने पर यह आपका हॉस्पिटल बिल का भुगतान कर सकती है। और आपको रिटर्न में कुछ नही मिलता है।

लेकिन टर्म इंश्योरेंस की बात करें तो आपका पैसा आपको वापस भी मिलता है। और समयावधि से पहले मौत होने पर भी आपको पूरा पैसा वापस दे दिया जाता है। इसके साथ साथ आपको व्याज और बोनस आदि चीजें भी मिलती है। यदि आपकी टर्म इंश्योरेंस पॉलिसी मार्केट लिंक्ड है तो फिर आप स्टॉक मार्केट (Stock Market) का उतार चढ़ाव का भी फायदा ले सकते हैं।

निष्कर्ष–

जैसे जैसे दिन बीतते जा रहे हैं। वैसे वैसे मेडिकल की चीजों के दाम भी आसमान छूते जा रहे हैं। और इसका आम आदमी की लाइफ में बहुत ही गंदा असर देखने को मिल रहा है। इसलिए अपने आप को और परिवार वालों को सुरक्षित रखने के लिए आपको हेल्थ इंश्योरेंस ले लेना चाहिए।

दूसरी तरफ यदि टर्म इंश्योरेंस की बात करें तो आने वाले समय में पैसों की जरूरत को पूरा करने के लिए आप टर्म इंश्योरेंस में इन्वेस्ट कर सकते हैं। वैसे आज के समय में निवेश के बहुत से और भी अच्छे ऑप्शन मौजूद हैं। लेकिन आपके अचानक न रहने पर यह इंश्योरेंस आपके परिवार को प्रोटेक्ट जरूर कर सकता है।

Pre EMI or Full EMI

पिछली पोस्ट में आपने जाना कि EMI क्या होता है, EMI को किस तरह से बैंक चलाता है, और भी बहुत सी जानकारी। आज मैं आपको बताने वाला हूं, कि Pre EMI or Full EMI क्या होते हैं। इनमें क्या अंतर होता है। और कौन सा विकल्प आपके लिए सही रहेगा।

EMI का पूरा नाम Equated Monthly Installment होता है। जिसको की हिंदी में समान मासिक किस्त कहा जाता है। सरल शब्दों में कहें तो समान मासिक किस्त के रूप में भुगतान ही आपका EMI कहलाएगा।

Pre EMI or Full EMI

किसी भी प्रॉपर्टी, कार या फिर कोई महंगी चीज जिनकी की EMI करनी पड़े। उनके लिए जब आप बैंक से लोन लेते हैं, तो बैंक आपको दो तरह के ईएमआई ऑप्शन देते हैं। एक होता है, Pre EMI और दूसरा आपका Full EMI, तो चलिए जानते हैं, कि आखिर Pre EMI or Full EMI में अंतर क्या है।

Pre EMI क्या है–

प्री EMI में आपमें बैंक द्वारा सामान्य इंटरेस्ट लगाया जाता है। इसको चलिए आपको एक उद्धरण के तौर से समझते हैं। माना आपने बैंक से 50 लाख रुपयों का लोन लिया है। और आप कहीं बिजनेस करते हैं, और अभी आपके पास 5 लाख रुपए बैंक द्वारा दिए गए हैं। और जो आपका इंटरेस्ट रेट है, वह 7.5% है। तो इनमें 5 लाख रुपयों का 7.5%, 37500 रुपए हो जायेगा।

और इन रुपयों को यदि हम मासिक ईएमआई में निकाल कर देखें तो यह आपका 3125 रुपए तक हो जायेगा। और आपको 6 महीने बाद दुबारा 5 लाख रुपए चाहिए हैं, तो आपका 3125 रुपए और जुड़ जाएंगे। और आपकी EMI तब 6250 रुपए हो जायेगी। याने की जेसे जैसे आपको बैंक पेमेंट करता जायेगा। वैसे वैसे आपकी EMI की किस्त भी जुड़ती चली जायेगी।

Full EMI क्या है–

Full EMI समझने से पहले यह जानना जरूरी है, कि ईएमआई में प्रिंसिपल और इंटरेस्ट रेट दोनो शामिल होते हैं। जब बैंक द्वारा आपको कंप्लीट लोन दे दिया जाता है, तो तब जाकर आपकी EMI शुरू होती है।

आप जब भी किसी भी सामान के लिए लोन लेते हैं, तो आपको उस लोन में जब ईएमआई देने की बात आती है, तो उस दौरान आपके द्वारा जब ईएमआई में प्रिंसिपल और इंटरेस्ट रेट दोनो को देने पड़ते हैं। तो उसको ही फुल EMI कहते हैं।

Pre EMI or Full EMI में मुख्य अंतर –

  • Pre EMI or Full EMI में प्री EMI में आपको जब लोन का पहला पेमेंट ही मिलता है, तो आपका उसी समय ईएमआई होना शुरू हो जाता है, जबकि Full EMI में आपको लास्ट में देना पड़ता है।
  • Pre EMI में आपको एक सामान्य अमाउंट ही इंटरेस्ट के तौर में देना होता है, जबकि Full EMI में आपको प्रिंसिपल और इंटरेस्ट दोनो को मिला कर देना पड़ता है।
  • Pre EMI or Full EMI में प्री ईएमआई में आपका जो इंटरेस्ट रेट होता है, वह कम नहीं होता है। लेकिन जब आप फुल ईएमआई की बात करते हैं तो उसमे आपका इंटरेस्ट रेट कम होता चला जाता है।

Pre EMI or Full EMI में कौन बेहतर –

वैसे तो हर किसी चीज का अपना महत्व होता है। ठीक उसी तरह इनका भी सिस्टम होता है। इसमें मेरी राय आपके लिए यह रहेगी कि यदि आप किराए से रहते हैं, तो आपके लिए Pre EMI बेहतर रहेगी। क्योंकि इसमें आपको शुरुआत में कम EMI देनी होगी।

लेकिन यदि आपको यह लगता है, की आप अपनी किस्त को अफोर्ड कर सकते हैं, तो फिर आप फुल ईएमआई को चुन सकते हैं। क्योंकि इसमें आप अपना जल्दी से जल्दी लोन खत्म करना चाहेंगे।

उम्मीद करता हूं, कि आपको मेरे द्वारा बताए गए Pre EMI or Full EMI में क्या अंतर होता है। इसके साथ ही Pre EMI or Full EMI में आपके लिए कौन सा विकल्प सही रहेगा, अच्छे से समझ आ गया होगा। यदि कोई भी प्रशन आपके मन में चल रहा हो, तो नीचे कमेंट में लिखे। मैं आपका उत्तर जरूर दूंगा।

What is ASM and GSM in stock market

स्टॉक मार्केट से यदि आप जुड़े हुए हो, तो आपने यह दो शब्द जरूर सुने होंगे। ASM and GSM। इतना ही नहीं आपने लोगों के मुंह से यह भी सुना होगा की आपको स्टॉक में इनवेस्ट करते समय यह देख लेना चाहिए कि कहीं ये ASM and GSM लिस्ट के अंदर तो नही है।

आपके मन में यह सवाल जरूर आया होगा कि आखिर यह ASM and GSM होता क्या है। तो चलिए इनके बारे में मैं आज आपको विस्तार से बताऊंगा कि आखिर यह क्या होता है। और इसको जानना क्यों जरूरी है।

ASM and GSM

ASM and GSM की सामान्य जानकारी –

ASM and GSM दोनो को बनाने का मुख्य कारण रिटेल इन्वेस्टरों की सुरक्षा करना है, जिसे की SEBI और स्टॉक एक्सचेंज BSE और NSE द्वारा बनाया गया। इन दोनों में ही ASM and GSM में उन शेयरों को रखा जाता है, जिसमें की बिना वजह ही भारी रिटर्न्स देखने को मिलते हैं। इसका सीधा सा मतलब यह हुआ की इन स्टॉक्स में ऑपरेटर घुस गया है, जिसमे की बहुत सा पैसा होता है। और इनके द्वारा इनमें इनवेस्ट किया गया है, जिस वजह से इसमें बिना वजह ही भारी वृद्धि देखने को मिली है।

और इस स्पीड से चल रहे स्टॉक्स को देख कर रिटेल इन्वेस्टर के मन में इन स्टॉक्स को लेने का विचार बनता है, और वह जेसे ही स्टॉक्स में इनवेस्ट करते रहते हैं। वैसे ही ऑपरेटर द्वारा इन शेयर को बेच दिया जाता है। और ASM and GSM Stocks में रिटेल इन्वेस्टर फंस जाता है। और एक भारी नुकसान उसे झेलना पड़ता है।

Additional surveillance Measure ( ASM ) क्या है–

एक्सचेंज और सेबी के द्वारा यह नियम बनाया गया। इसमें उन स्टॉक्स में अतरिक्त निगरानी रखी जाती है, जिनमें की बिना वजह बड़त हुई है। इसके साथ ही एएसएम लिस्ट में रखने के लिए स्टॉक्स की शॉर्टलिस्टिंग एक उद्देश्य मानदंड पर आधारित है। जैसा कि सेबी और एक्सचेंज के द्वारा संयुक्त रूप से निम्नलिखित पैरामीटर को कवर करने के लिए किया जाता है।

ASM लिस्ट में किन स्टॉक्स को रखा जाए–

  • किसी स्टॉक में प्राइस मूवमेंट बहुत अधिक हो जाने पर, इसे high low veriation भी कहा जाता है।
  • यदि किसी स्टॉक में अचानक से ही कुछ ही इन्वेस्टर बहुत सा निवेश कर रहे हो, इसे client concentration कहा जाता है।
  • यदि किसी स्टॉक में आज का जो क्लोजिंग प्राइस है, उसमे अगले दिन के क्लोजिंग प्राइस में ज्यादा का अंतर आ गया हो, तो उसे close to close price variation कहते हैं।
  • किसी स्टॉक में जब अचानक से ज्यादा ट्रेड होता है, और उसमें वॉल्यूम अधिक दिखने लगता है। Volume variation कहते हैं।

यदि इन सब पैरामीटर को कोई भी स्टॉक पूरा नहीं करता और यही चीजें उस स्टॉक्स में दिखने लगती हैं, तो उनको ASM LIST के अंदर रख दिया जाता है। इस लिस्ट को भी दो भागों में बांटा गया है। एक शॉर्ट टर्म ASM LIST और दूसरा लॉन्ग टर्म ASM LIST। यदि कोई स्टॉक शॉर्ट टर्म के अंदर आता है, तो उसे 2 Stage के अनुसार से सूचीबद्ध किया जाता है। और यदि स्टॉक्स लॉन्ग टर्म में आता है, तो फिर उसे 4 Stage के अनुसार सूचीबद्ध किया जाता है।

Graded surveillance Measure (GSM) क्या है–

स्टॉक एक्सचेंज और सेबी के द्वारा GSM में भी उन स्टॉक्स को रखा गया है, जिसमें की रिटेल इन्वेस्टर फंस न जाए। मतलब की इसमें इसके बारे में चर्चा और यह निर्णय लिया है, कि उपरोक्त उपायों के साथ साथ प्रतिभूतियों पर और अधिक निगरानी उपाय को लागू किया जाए। GSM में डाले जाने वाले शेयरों की पहचान समय समय पर बाजार में कर रहे ट्रेडर या इन्वेस्टर को NSE की ऑफिशियल वेबसाइट पर से दिया जाता है।

GSM लगने पर क्या होता है–

  • जो स्टॉक इसके अंदर आ जाते हैं, उन स्टॉक्स में इंट्राडे ट्रेडिंग (intraday trading) में प्रतिबंध लग जाता है। इसके साथ ही पूरे दिन में 5% ही सर्किट लगती है। अब वह ऊपर की हो या फिर नीचे की।
  • इनमें मार्जिन 100% या फिर उससे भी अधिक की राशि जमा करनी पडती है। जिसे की एक विस्तारित अवधि के लिए ही रखा जाता है।
  • एक सप्ताह में केवल एक ही बार ट्रेड किया जा सकेगा।
  • शेयर में अपर सर्किट लगने पर उनको ऊपरी प्राइस पर ही फ्रीज कर दिया जाता है।

GSM में आने वाले शेयर की एंट्री –

  • एक्सचेंज और सेबी की साल में एक बार बैठक होने पर उन स्टॉक्स में ध्यान ध्यान दिया जाएगा, जिनको की अब GSM में से बाहर निकाला जाएगा। और दूसरे शेयर को अंदर किया जाएगा।
  • यदि किसी कंपनी का मार्केट कैप 25 करोड़ हो।
  • निफ्टी 500 का (प्राइस टू बुक) का वैल्यूएशन का दो गुना से ज्यादा स्क्रिप प्राइस टू बुक वैल्यूएशन हो।

GSM में आने वाले शेयर की एंट्री–

  • इसमें आए हुए स्टॉक के बारे में हर तिमाही में बातचीत चलती है। याने की तिमाही के आधार पर इन स्टॉक की समीक्षा की जाती है।
  • एक्सचेंज और सेबी के द्वारा समय समय पर अपडेट किया जाएगा। और अन्य सभी प्रचलित निगरानी उपायों के संयोजन में ही किया जाता है।
  • इसके अंदर आए हुए स्टॉक यदि GSM मापदंड को पूरा करता है, तो वह इस सूची से बाहर निकाल दिया जाता है।

ASM and GSM बनाने का मुख्य उद्देश्य –

  • इन्वेस्टरों को ASM and GSM शेयर के प्रति सचेत करना की जब भी आप इन शेयर में इनवेस्ट करें तो लेन देन करते समय अतरिक्त सावधानी जरूर बरतें।
  • ASM and GSM में उन स्टॉक्स को डाला जाता है, जिनकी की मार्केट कैप बहुत ही कम होती है, और मार्केट कैप कम होगी तो यह पैनी स्टॉक्स कहलाएंगे। और इन स्टॉक्स में खतरा उतना ही अधिक होता है। इसलिए ही इन स्टॉक्स में एक्सचेंज और सेबी के द्वारा कड़े प्रतिबंध लगा दिए जाते हैं। ताकि रिटेल इन्वेस्टर को ज्यादा नुकसान न सहना पड़े। और वह पहले ही सचेत हो जाएं।

ASM and GSM से क्या निष्कर्ष निकला–

उम्मीद करता हूं, आपने इस पोस्ट के माध्यम से समझ ही लिया होगा की ASM and GSM क्या होता है। अब आपको इन्वेस्टर होने के नाते इसमें क्या करना चाहिए। इसमें यदि हम GSM स्टॉक्स की बात करें तो इसमें अधिकतर पैनी स्टॉक्स को रखा जाता है। याने की वह स्टॉक जिनका प्राइस बहुत कम होता है, जिसे की हर किसी के द्वारा लिया जा सकता है। इसमें हमने देखा की GSM कैटेगरी के अंदर हमारा इन्वेस्टमेंट ब्लॉक ही रहता है। इसलिए इन शेयरों से हमें दूर ही रहना चाहिए।

यदि हम ASM लिस्ट की बात करें तो इसमें आए स्टॉक्स में वह स्टॉक आते हैं। जोकि फंडामेंटल स्ट्रॉन्ग होते हैं। यह स्टॉक्स बहुत बार भी ASM LIST में आ सकते हैं। इसमें हमको एक बात का यह ध्यान रखना होता है, कि यदि आपका स्टॉक्स लॉन्ग टर्म ASM LIST की ओर जा रहा हो तो फिर हमको इसको अवॉइड करना चाहिए।

What is Sensex and Nifty

वैसे तो मैने आपको sensex and nifty के बारे में पिछली पोस्ट में बता दिया था, कि आखिर यह क्या होता है। लेकिन आज मैं आपको दोनो के बीच डिफरेंस बताने वाला हूं की इन दोनो में अंतर क्या है, और यह किस तरीके से एक दूसरे से अलग हैं।

हम में से ही बहुत बार लोग जब टीवी, अखबार, रेडियो या फिर कुछ अन्य चीजें सुनते हैं, तो हमने sensex and nifty का नाम काफी बार सुना होता है, और हम यह जानने की कोशिश करते हैं की आखिर यह होता क्या है, और जब इसे अखबार में देखते हैं, तो हमको यह समझ में नहीं आता की आखिर इसमें नंबर क्यों दिए हुए हैं। और इसका इससे क्या लेना देना है।

तो चलिए आपको बताते हैं कि sensex and nifty क्या हैं। और इनमे आखिर अंतर क्या है।

sensex and nifty

Sensex and Nifty क्या हैं?

सेंसेक्स ( Sensex )

Sensex एक मार्केट एक्सचेंज है, जिसमे कि देश के सबसे बड़े अलग अलग सेक्टर के 30 बड़ी कंपनियां शामिल हैं। और इन 30 कंपनियो को इसमें इंडेक्स किया जाता है। इन कंपनियों में विख्यात कंपनियां रिलायंस, टीसीएस, एचडीएफसी, इन्फोसिस जैसी बड़ी कम्पनियां शामिल हैं। इसकी शुरुआत 1986 में हुई थी।

इसको BSE 30 नाम से भी जाना जाता है। इसकी वजह यह है, क्योंकि इसमें 30 कंपनियाँ शामिल हैं। और यह एक तरीके से देश की अर्थव्यवस्था को भी दर्शाते हैं। इन कंपनियों के उतार चढ़ाव से ही शेयर मार्केट की स्तिथि का पता चलता है, और इसके साथ इकोनॉमी का भी।

निफ्टी ( Nifty )

Nifty जो होता है, उसको हम निफ्टी 50 के नाम से भी जानते हैं। और यह नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के अंतर्गत आता है। निफ्टी में देश की टॉप के 50 कंपनियां शामिल हैं। और यह भी कहीं न कहीं हमारी इकोनॉमी पर प्रभाव डालती हैं। इन कंपनियों में देश के 13 अलग अलग सेक्टर से 50 कंपनियों को चुना जाता है। और इन्ही कंपनियों को निफ्टी 50 नाम से जाना जाता है। निफ्टी की शुरुआत 1994 में की गई थी। और निफ्टी के कंपनियों के उतार चढ़ाव से भी शेयर मार्केट के उतार चढ़ाव में इफेक्ट पड़ता है।

Sensex और Nifty में मुख्य अंतर –

Sensex and nifty में जो सेंसेक्स है, वह बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (Bombay Stock Exchange) के अंतर्गत आता है। जबकि निफ्टी नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (Naitional Stock exchange ) के अंतर्गत आता है। सेंसेक्स में टॉप की 30 कंपनियां और निफ्टी में टॉप की 50 कंपनियां आती हैं। सेंसेक्स का बेस वैल्यू 100 का जबकि निफ्टी का 1000 का होता है।

उम्मीद करता हूं, की आपको मेरे द्वारा बताए Sensex and Nifty में क्या अंतर होता है। अच्छे से समझ आ गया होगा।

SIP or Lumpsum

SIP or Lumpsum

       निवेशक जो होता है, वह अपनी इन्वेस्टमेंट को बाजार में दो तरीके से लगा सकता है। SIP or LUMPSUM, SIP (सिस्टेमेटिक इन्वेस्टमेंट प्लान ) और दूसरा होता है– एकमुश्त (Lump Sum)। किसमे कितना रिटर्न्स मिलेगा यह बाजार में चल रही परिस्तिथियों के हिसाब से पता चल पाता है। तो चलिए आपको आज इस पोस्ट की मदद से बताते हैं, कि आखिर SIP or LUMPSUM क्या होता है? इसमें फायदा क्या होता है, और नुकसान क्या होता है। और हमारे लिए कौन सा इन्वेस्टमेंट ज्यादा सही रहेगा।

      जब भी कोई नया निवेशक इनवेस्ट करता है, तो वह उसके लिए एक कठिन काम होता है। रिस्क मैनेजमेंट इसका एक मुख्य हिस्सा होता है। और आपके पैसे कितने समय में आपको कितने का रिटर्न्स देंगे यह आपके निवेश करने के समय और निकालने के समय में निर्भर करता है।

SIP or LUMPSUM क्या हैं–

एक ही बारी में निवेशक के द्वारा एक बड़ा अमाउंट इनवेस्ट करने की प्रक्रिया को LUMPSUM कहा जाता है।

जबकि थोड़े थोड़े पैसों को समय समय में निवेश करने की प्रक्रिया को SIP कहा जाता है। और यह निवेश आपका प्रत्येक माह या तिमाही का हो सकता है।  

SIP or LUMPSUM की खूबियां और कमियां –

एकमुश्त निवेश (Lump Sum Investment)

    आपको बता दें, कि SIP or LUMPSUM में LUMPSUM इन्वेस्टमेंट में निवेशक अपने इन्वेस्टमेंट को एक ही बारी में निवेश करता है, और जरूरत पड़ने या फिर पैसों के होने पर ही वह दुबारा इन्वेस्टमेंट करता है। सरल शब्दों में कहें तो यह टॉप अप करता है।

LUMPSUM के लाभ –

LUMPSUM इन्वेस्टमेंट मुख्य उन लोगों के लिए ज्यादा सही होता है, जिनके पास बहुत सा पैसा होता है। सरल शब्दों में कहा जाए तो यह अनुभवी या मोटी रकम रखने वाले निवेशकों के लिए सही होता है। साथ ही इसमें अपने जोखिम की क्षमता को बढ़ाना भी जरूरी है।

आपको बता दें कि lumpsum करने वाले निवेशक जो होते हैं, वह बाजार के उतार चढ़ाव को अपने अनुसार हैंडल कर सकते हैं। और अधिकतर यह इन्वेस्टमेंट उन लोगों में ही ज्यादा देखने को मिला है, जिनके पास एक बड़ी राशि उपलब्ध होती है।

LUMPSUM में इनवेस्ट करने से लाभ तब ज्यादा होता है, जब की शेयर बाजार ( Stock market ) एक मंदी से गुजरकर अपनी ग्रोथ की ओर बड़ रहा हो। इसके साथ ही यह लॉन्ग टर्म में एक अच्छा रिटर्न्स देने वाला इन्वेस्टमेंट शाबित हो सकता है।

LUMPSUM निवेश के नुकसान –

यदि आप lumpsum इन्वेस्टमेंट करना चाहते हैं, तो फिर आपके लिए टाइमिंग बहुत जरूरी हो जाती है। जब आप एकमुश्त तरीके से निवेश करते हैं, तो बाजार की टाइमिंग इसके लिए बहुत जरूरी हो जाती है। यदि आपके द्वारा निवेश तब किया जाता है, जब की बाजार पहले से ही अच्छा खासा बड़ा हुआ है, तो आपका जो रिस्क-रिवार्ड रेश्यो होता है, वह कम हो जाता है।

वहीं अगर यदि बाजार में गिरावट चल रही है, और आप शॉर्ट टर्म के लिए इनवेस्ट करना चाहते हो, तो फिर आपको नुकसान का सामना भी करना पड़ सकता है। लेकिन हां यदि आपने मंदी के दौरान निवेश किया हुआ है, और आप लंबे समय तक उसमे इनवेस्ट किए रखते हो तो फिर आपको एक अच्छा रिटर्न्स देखने को मिल सकता है।

सिप निवेश (SIP Investing)–

SIP में मुख्यत वे निवेशक भी इनवेस्ट कर सकते हैं, जिनके पास की बहुत कम पैसा होता है। जोकि एक निश्चित समयंतराल में कम कम मात्रा में भी निवेश कर सकते हैं। निवेश जो होता है, वह आपका मासिक, त्रैमासिक या फिर वार्षिक के आधार पर हो सकता है। इसमें आपका धीरे धीरे ही एक अच्छा अमाउंट बनना शुरू हो जाता है।

सिप (SIP) के क्या लाभ–

नए नए निवेशकों के लिए SIP एक बेस्ट इन्वेस्टमेंट हो सकती है। क्योंकि वह भी एक छोटी अमाउंट के साथ इन्वेस्टमेंट की शुरुआत कर सकते हैं। इसके साथ साथ यह उन लोगों के लिए भी जरूरी हो जाता है, जोकि अपनी बचत को ठीक तरीके से मैनेज नही कर पाते हैं। इससे उनमें लंबे समय तक एक नियमित बचत की आदत भी बन जाती है। साथ ही यह उन निवेशकों के लिए भी अच्छा साबित होता है, जिसे कि इन्वेस्टमेंट की दुनिया के बारे में कुछ ज्यादा जानकारी नहीं है।

* म्यूचुअल फंड ( Mutual Fund )

असल मायने में SIP जो होता है, वह बाजार के उतार चढ़ाव को एक समय के बाद सामान्य कर देता है। मतलब की यदि बाजार में तेजी होगी तो उस समय कम यूनिट खरीदी जाती है, साथ ही यदि बाजार में मंदी का दौर चल रहा हो तो उस समय में कम प्राइस में अधिक यूनिट खरीदी जा सकती हैं। इससे यह होता है, कि एक समय के बाद प्रति यूनिट की कीमत औसतन सामान्य हो जाती है।

SIP में निवेशक अपनी गति और सुविधा के अनुसार इसमें निवेश करता है। साथ ही इसमें निवेशक अपने मौजूदा वित्तीय स्तिथि को ध्यान के रख कर योजना बना सकता है।

सिप (SIP) के नुकसान–

SIP का यह नुकसान हो सकता है, कि SIP की वजह से निवेशक कई बार बाजार में अच्छे अवसरों से चूक जाते हैं। इसमें निवेश जो किया जाता है, वह तारीख पहले से डिसाइड की हुई रहती है। मतलब की निवेश पूर्व निर्धारित तारीख पर किया जाता है। और इसी वजह से बाजार के उतार चढ़ाव में निवेश कर पाना मुश्किल हो जाता है। और ऐसी स्थितियों में निवेशक इसका फायदा नहीं उठा पाते हैं।

इसके साथ साथ SIP उन लोगों के लिए भी सही नही है, जिनके पास कमाने के एक नियमित आय नहीं हैं। और बहुत बार तो ऐसा भी होता है, कि निवेशक के मन बदल जाने पर वह SIP में इनवेस्ट करना भी छोड़ देता है।

दोनों में कौन ज्यादा सही–

देखा जाए तो दोनों ही अपनी अपनी जगह बेहतर हैं, लेकिन मेरी आपके लिए सलाह यह होगी कि यदि आप एक अमीर परिवार से ताल्लुक रखते हैं, तो आप दोनों को ही प्रथमिकता दे सकते हैं। लेकिन यदि आप मिडिल क्लास फैमिली से हैं तो आपके लिए SIP करना ही ज्यादा बेहतर रहेगा। क्योंकि इसमें आप कम से कम रुपयों के साथ भी इनवेस्ट कर सकते हैं। 

SIP, बाजार में चल रहे उतार और चढ़ाव के बावजूद भी यह आपके रिटर्न्स को एक समय के बाद सामान्य स्तर पर ले आता है। और यदि आप lumpsum इन्वेस्टमेंट करते हैं, और आपको जल्द ही पैसों की जरूरत पड़ गई तो आप जब अपने इन्वेस्टमेंट अमाउंट को शॉर्ट टर्म के अंदर निकलेंगे तो हो सकता है, की आपको इसमें अच्छा रिटर्न्स न मिल सकें।

Bond vs Debenture

Bond vs Debenture

Bond vs Debenture (बॉन्ड्स और डिबेंचर)

     जब कभी भी किसी कंपनी को पैसों की जरूरत होती है, तो उसके पास फंड जमा करने के दो ऑप्शन होते हैं, एक होता है, इक्विटी और दूसरा डेट।
 
इक्विटी में रिस्क कैपिटल है, जिसके अंदर की कंपनी अपने शेयरहोल्डर्स में शेयर्स को डाइल्यूट कर देती है। मतलब की यदि कंपनी के पास 100 शेयर्स हैं और कंपनी को पैसों की जरूरत पड़े तो कंपनी अपना कुछ % शेयर्स अपने शेयरहोल्डर्स को बेच देती है। उस पैसे को कंपनी अपने बिजनेस में लगा देते हैं। और उस कंपनी में तब वह शेयरहोल्डर भी उतने % का हकदार बन जाते हैं।
 
और दूसरा ऑप्शन कंपनी के पास यह होता है, कि यदि कंपनी अपने शेयर्स को सेल नही करना चाहती तो तब वह डेट फाइनेंशियल ले सकते हैं। डेट फाइनेंशियल का यह फायदा है, कि कंपनी को बैंक से लोन मिल जाता है। यदि कंपनी बैंक से लोन भी नही लेना चाहती है, तो कंपनी के पास एक ऑप्शन यह होता है, कि वह Bond or Debenture इश्यू करें। जिसमे की पब्लिक से पैसे लिए जाते हैं। यह ठीक उसी तरीके की प्रोसेस होती है, जैसे की बैंक से लोन लेना। परंतु इसमें होता यह है, कि कंपनी को एक फिक्स इंटरेस्ट रेट अपने बॉन्ड्स या डिबेंचर होल्डर को दिया जाता है।
 
लेकिन बहुत से लोग बॉन्ड्स और डिबेंचर में कन्फ्यूज हुए रहते हैं, कि आखिर ये दोनो एक दूसरे से कैसे अलग हैं। वैसे देखा जाए तो यह सिमिलर ही हैं। परंतु कुछ डिफरेंस भी हैं, जिनकी वजह से दोनो एक दूसरे से अलग हैं।
 

Bond vs Debenture

की समानता – 

(i)– बॉन्ड्स और डिबेंचर दोनो ही कंपनी या फिर ऑर्गेनाइजेशन के लिए लॉन्ग टर्म फाइनेंस का तरीका है।
 
(ii)– Bond vs Debenture दोनों ही पब्लिक से लोन लेकर अपने लिए पैसे जमा करती है। 
 
(iii)– दोनों में ही फिक्स्ड इंटरेस्ट रेट मिलता है।
 
(iv)– दोनों में ही फिक्स्ड टाइम पीरियड देखने को मिलता है। मतलब की या तो उनको इंटरेस्ट पेमेंट साल में एक साथ ही मिलता है। या फिर वह महीने के हिसाब से भी ले सकते हैं। 
 
 
 
 
 

Bond vs Debenture की भिन्नता 

(i)– बॉन्ड्स जो होता है, वह एक सिक्योर्ड फाइनेंस होता हैं। जबकि डिबेंचर जो होता है, वह सिक्योर्ड और अनसिक्योर्ड दोनों ही हो सकते हैं।
 
(ii)– यदि कभी कंपनी की हालत बहुत खराब है, या फिर कोई भी पेमेंट टाइम से नहीं दे पा रही है, और बैंक क्रेप्सी की नौबत आ गई है, तो इस कंडीशन में पहले पेमेंट बॉन्ड्स होल्डर को दिया जाएगा। क्युकी यह एक सिक्योर्ड फाइनेंस है। और इसके बाद ही डिवेंटर को पेमेंट दिया जाएगा।
 

(iii)– बॉन्ड्स को शेयर्स के अंदर कन्वर्ट नहीं किया जा सकता है। जबकि डिबेंचर को शेयर्स में कन्वर्ट किया जा सकता है। याने की कन्वर्टेबल डिबेंचर होने पर इसके लिए कंपनी भी शेयर इश्यू करवा सकती है।

Bond vs Debenture कहां इश्यू होते–

      बॉन्ड्स मुख्यत फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन, गवर्नमेंट, या फिर किसी कॉर्पोरेट्स द्वारा इश्यू करवाए जाते हैं। जबकि डिबेंचर मुख्यत प्राइवेट कंपनी ही इश्यू करती हैं।
 

Mutual fund vs Small case

Mutual fund vs small case

Mutual fund vs small case – म्यूचुअल फंड और स्मॉल केस

Mutual fund vs small case किस तरीके से काम करते हैं। सबसे पहले हम ये जान लेते हैं।

म्यूचुअल फंड का कार्य –

Mutual fund vs small case में म्यूचुअल फंड में जब भी कोई इन्वेस्टर म्यूचुअल फंड में अपना पैसा निवेश करना चाह रहा होता है, तो वह इन्वेस्टर अपना पैसा म्यूचुअल फंड मैनेजर को देता है। इसमें हमें डीमैट अकाउंट की जरूरत नहीं पड़ती है। फंड मैनेजर में सभी एक्सपर्ट होते हैं। तो वह अपने हिसाब से ऐसे स्टॉक में इनवेस्ट करते हैं, जिनमें की उनको पोटेंशियल दिखती है।

इसको एक सरल से उद्धरण से समझते हैं। माना रोहन कोई लड़का है, जिसको कि म्यूचुअल फंड में निवेश करना है, तो वह सबसे पहले म्यूचुअल फंड में अपना अकाउंट खुलाएगा। और अकाउंट खुलवाने के बाद वह माना 10 हजार रुपए इनवेस्ट करना चाह रहा है, तो उसके बैंक अकाउंट से वह रुपए कट करके उसके म्यूचुअल फंड अकाउंट में चला जाता है। अकाउंट में जाने के बाद इन्वेस्टर को एक NAV असाइन हो जायेगी। और उसके बदले इन्वेस्टर को यूनिट मिल जायेगी।

1 NAV = 100 रुपए,

तो इन्वेस्टर को 10 हजार रूपए में 10,000 ÷ 100 = 100 यूनिट मिल जाएंगी। और यह यूनिट्स उसके म्यूचुअल फंड अकाउंट में आ जाएंगी।

इसके बाद फंड मैनेजर अपने हिसाब से इन पैसों को पोटेंशियल के हिसाब से या किसी अन्य चीजों को देख कर के स्टॉक्स में लगा लेता है। और जब चाहे खरीद सकता है, और जब चाहे वह उसे बेच सकता है।

* मार्केट कैपिटलाइजेशन ( Market captalization )

* अच्छे म्यूचुअल फंड ( Best mutual Fund )

स्माल केस –

इसमें भी हम रोहन का ही उद्धरण लेकर चलते हैं, माना की रोहन कहता है, की मुझे म्यूचुअल फंड में निवेश नहीं करना है, मुझे स्माल केस में इनवेस्ट करना है, तो स्माल केस में भी फंड मैनेजर ही डिसाइड करता है, की हमारे लिए कौन से स्टॉक्स लिए जाए। मतलब की फंड मैनेजर हमारे लिए कुछ स्टॉक्स का बास्केट तैयार करता है। जिनको की आप अपने डीमैट अकाउंट ( Demat Account ) में ले सकते हैं।

 यह एक तरीके से एडवाइस ही है, जिसे की बास्केट ऑफ स्टॉक्स कहा जा सकता है। इनमे एक सेबी रजिस्टर्ड एनालिस्ट होते हैं। यदि रोहन के द्वारा 10 हजार इनवेस्ट किए जाते है, और स्माल केस में रोहन को 4 स्टॉक्स का सजेशन दिया जाता है, तो जो यह 4 स्टॉक्स सजेस्ट किए गए थे, वह आपके डीमैट अकाउंट में आ जाते हैं। परंतु स्मॉलकेस में रिबेल्सिंग का ध्यान जरूर रखना चाहिए।

 रिबेलेंसिंग वह होता है, जोकि क्वार्टरली या एक ऐसे टाइम में सजेस्ट किया जाता है, जब हमको अपना पोर्टफोलियो चेंज करना होता है। मतलब की खराब स्टॉक्स हमारे पोर्टफोलियो से निकाल दिए जाते हैं। और इसके जगह पर जो अच्छे स्टॉक्स होते हैं, उनको जोड़ दिया जाता है। और यह प्रोसेस खाली एक क्लिक के करने से ही हो जाती है। जिसे की रिबेलेंसिंग कहा जाता है।

Mutual fund vs small case और stocks –

स्टॉक्स –

(i)– स्टॉक्स में रिटर्न्स की बात करें तो इसमें हमको स्माल केस और म्यूचुअल फंड से अच्छे रिटर्न्स देखने को मिल जाते हैं।

(ii)– स्टॉक्स की सरलता देखें तो इसमें म्यूचुअल फंड और स्मॉलकैस की तुलना में कोई भी सरलता नही होती है।

(iii)– स्टॉक्स में हमारे हाथ में पूरा कंट्रोल होता है।

(iv)– स्टॉक्स में हमको कोई भी फीस चार्ज नहीं करनी होती है।

(v)– स्टॉक्स में हमारा काफी टाइम लग जाता है, जोकि बाकी इन्वेस्टमेंट से बहुत ज्यादा है।

स्मॉलकेस –

(i)– स्मॉलकेस के रिटर्न्स म्यूचुअल फंड से अच्छे लेकिन स्टॉक्स से थोड़ा कम देखने को मिलते हैं।

(ii)– स्मॉलकेस की सरलता देखें तो यह स्टॉक्स से तो अच्छा है, परंतु म्यूचुअल फंड से थोड़ा कठिन है।

(iii)– स्मॉलकेस में भी कंट्रोल हमारे ही हाथ में रहता है, हम जब चाहें स्टॉक्स को बाय या फिर सेल कर सकते हैं।

(iv)– स्मॉलकेस में फीस चार्ज तो पड़ता है, लेकिन स्टॉक्स से ज्यादा और म्यूचुअल फंड से कम।

(v)– स्मॉलकेस में हमको टाइम तो देना होता है, लेकिन स्टॉक्स से कम और म्यूचुअल फंड के मुकाबले थोडा ज्यादा टाइम देना पड़ता है।

म्यूचुअल फंड –

(i)– म्यूचुअल फंड के रिटर्न्स हमको स्माल केस और स्टॉक्स के मुकाबले थोड़ा कम मिलता है।

(ii)- म्यूचुअल फंड में सरलता सबसे ज्यादा होती है, क्युकी म्यूचुअल फंड को फंड मैनेजर द्वारा ही ट्रैक किया जाता है।

(iii)– म्यूचुअल फंड में हमारे हाथ में कोई भी कंट्रोल नही होता है।

(iv)– म्यूचुअल फंड में हमें स्मॉलकेस की तुलना में थोड़ा ज्यादा फीस देनी होती है।

(v)– म्यूचुअल फंड में हमको ज्यादा टाइम लगाने की जरूरत नहीं होता है। क्योंकि सब कुछ फंड मैनेजर द्वारा देखा जाता है।

म्यूचुअल फंड और स्माल केस के चार्जेस –

म्यूचुअल फंड में एक ही बार चार्ज पड़ता है, जोकि लगभग 1% तक होता है। और यह चार्ज भी 1 साल के समय में लिया जाता है।

स्माल केस में ट्रांसेशन और डीमैट चार्ज पड़ता है। जब भी कोई इन्वेस्टर स्मॉलकेज खरीदता है, तो एक ट्रांसेशन फीस पड़ती है, जिससे कि स्मॉलकेस कमाता है। मतलब की वह 100 रुपए पर स्मॉलकेस का होता है। और 18% GST लगाकर यह 118 रुपए हो जाता है, जोकि आपके जेब से ही देना होगा। इसके साथ साथ आपके जो स्टॉक्स होते हैं वह डीमैट अकाउंट में गए होते हैं, तो जो भी ब्रोकरेज चार्ज होता है, वह चार्ज लिया जाता है।

ज्यादातर केस में आजकल ब्रोकर इस चीज का कोई भी चार्ज नहीं लेते हैं। मतलब की यह फ्री ही समझ लो। और इसमें सिक्युरिटी ट्रांसेशन टैक्स भी पड़ता है, जोकि आपका 0.10% होता है। जोकि सरकार के पास जाता है। इसके अतिरिक्त DP चार्जेस भी पड़ते हैं, जोकि केवल आपको स्टॉक्स को सेल करने पर ही देना होता है। और यह चार्जेस आपके CDSL,और NSDL में स्टॉक्स को सेव करने के पड़ते हैं।

अब इन दोनों में से कौन अच्छा है, यह तो प्रत्येक इंसान के प्रोफाइल और रिक्वायरमेंट पर निर्भर करता है। यदि आपके पास बिलकुल भी समय नहीं है, तो आप म्यूचुअल फंड में निवेश कर सकते हैं। और जिनको भी फाइनेंस के कामों में मज़ा आता है, तो वह स्मॉलकेस में इनवेस्ट कर सकता है, जैसे जैसे उसको और अधिक जानकारी होने लगे तो फिर वह स्टॉक्स में भी इनवेस्ट कर सकता है।

साथ ही यदि आपके पास 1 लाख से ज्यादा रुपए इनवेस्ट करने के लिए है, तो आप इसे स्मॉलकेस में ही इनवेस्ट करें, क्योंकि इसकी कॉस्ट काफी कम होती है।जोकि आपके लिए फायदेमंद साबित होगी।

Etf vs index fund vs Mutual fund

etf vs index fund vs mutual fund

Etf vs index fund vs mutual fund हिन्दी में |

      etf vs index fund vs mutual fund में इतना तो हर किसी को पता होता है, कि इंडेक्स फंड और ईटीएफ जो होते हैं, उनका म्यूचुअल फंड के मुकाबले लॉ कॉस्ट फंड होता है। मतलब की इनका जो एक्सपेंस रेश्यो होता है, वह म्यूचुअल फंड के मुकाबले काफी ज्यादा कम होता है। चलिए आपको इन तीनों के बारे में हल्की सी जानकारी दे देते हैं। ताकि आपको समझने में आसानी हों। 

म्यूचुअल फंड ( Mutual fund)– 

      यह तो सभी लोग जानते हैं, कि यदि आपको स्टॉक्स में डायरेक्टली इनवेस्ट नहीं करना है, तो आप म्यूचुअल फंड में इनवेस्ट कर सकते हैं। म्यूचुअल फंड में इनवेस्ट करने से हमारा डायवर्सिफिकेशन हो जाता है। साथ ही हमारा इससे रिस्क भी कम हो जाता है। और इसके साथ साथ हमको फंड मैनेजर की एक्सपर्टीज भी मिल जाती है। यहां पर म्यूचुअल फंड के 2 टाइप होते हैं।

(i)– एक्टिव म्यूचुअल फंड,
(ii)– पैसिव म्यूचुअल फंड,

      एक्टिव म्यूचुअल फंड में फंड मैनेजर द्वारा किए गए इन्वेस्टमेंट को डेली बेसिस पर रेगुलर ट्रैक किया जाता है। और स्टॉक्स में टाइम के साथ साथ उनमें बदलाव करता रहता है। एक्टिव म्यूचुअल फंड का जो लक्ष्य होता है, वह यह होता है, कि उसके जो रिटर्न्स मिले वह इंडेक्स फंड से अधिक होने चाहिए। 

     जबकि पैसिव म्यूचुअल फंड में एक स्पेसिफिक इंडेक्स को ही फॉलो किया जाता है। और एक बार इनमे इनवेस्ट करके बार बार इसमें कोई बदलाव नहीं किया जाता है। और जैसे जैसे इंडेक्स रिटर्न्स देते हैं, वैसे वैसे इस म्यूचुअल फंड के रिटर्न्स भी बनते जाते हैं। इंडेक्स में उद्धरण के लिए आप निफ्टी 50 ( Nifty 50 ) या फिर सेंसेक्स ( Sensex )। साथ ही कोई सेक्टर जैसे कि फार्मा सेक्टर, आईटी सेक्टर आदि हो सकते हैं।

इंडेक्स फंड ( Index fund ) –

      इंडेक्स फंड भी एक प्रकार का म्यूचुअल फंड ही है। इसमें भी फंड मैनेजर द्वारा इन्वेस्टर से पैसे जमा किए जाते हैं। और इक्कट्ठा किए गए पैसों को एक पार्टिकुलर इंडेक्स में इनवेस्ट कर दिया जाता है। इसके साथ साथ इसका एक्सपेंस रेश्यो भी काफी कम 0.1 से 0.3 तक होता है। 
 

ईटीएफ ( ETF )

      ईटीएफ जो होते हैं, वह म्यूचुअल फंड से डिफरेंटली ऑपरेट करते हैं। यह भी इंडेक्स को ही फॉलो करते हैं। लेकिन यहां पर जब भी नया फंड आता है, तो इनके द्वारा न्यू फंड ऑफर ( NFO ) में उसी समय इनवेस्ट कर लिया जाता है। उसी स्थिति में फंड के पास पैसे आते हैं। साथ ही यह फंड बार बार नही बड़ता है।

मतलब की जैसे अगर म्यूचुअल फंड का एसेट मैनेजमेंट 500 करोड़ से शुरू हुआ था तो आने वाले समय में उसका एसेट अंडर मैनेजमेंट बढ़कर 5 हजार करोड़ या फिर 10 हजार करोड़ भी हो सकता है। लेकिन यदि ईटीएफ का एक बार NFO लॉन्च हुआ है, और उस दौरान 500 करोड़ का फंड जमा हुआ है, तो उसका एसेट अंडर मैनेजमेंट (AUM ) उतना ही रहेगा जितना की वह पहले था।

 याने की उसका AUM अब बंद हो चुका है। इसमें ईटीएफ की एक वैल्यू रह जाती है, जो कि इन्वेस्टर्स में ही आपस में बराबर बांट दिया जाता है। और उनके बीच ही आपस में ट्रेडिंग की जाती है। यह मुख्यत तीन प्रकार के होते हैं। 

(i)– इक्विटी, ( इसमें स्टॉक्स में ट्रेड किया जाता है )

(ii)– डेट, ( इसमें सरकारी बॉन्ड्स या फिर प्राइवेट कंपनी में ट्रेड किया जाता है )

(iii)– कमोडिटी, ( इसमें गोल्ड, सिल्वर या फिर ऑयल में ट्रेड किया जाता है )

      इंडेक्स फंड, म्यूचुअल फंड के बाद दूसरा पॉपुलर फंड माना जाता है। हालांकि अभी ईटीएफ ज्यादा पॉपुलर नहीं हुआ है। 

अधिक विस्तार से जानिए :–

* म्यूचुअल फंड ( Mutual fund )

* इंडेक्स फंड ( Index fund )

* ईटीएफ ( ETF )

etf vs index fund vs mutual fund के बीच डिफरेंट– 

(i)– ट्रेडिंग और प्राइसिंग – 

       म्यूचुअल फंड और इंडेक्स फंड की बात करें, तो जब हम इनमे इनवेस्ट करते हैं, तो हमको उसमें असाइन होती है, 1 यूनिट। जिसे हम नेट एसेट वैल्यू (NAV) कहते हैं। और जैसे जैसे इनकी वैल्यू बढ़ती जाती है, वैसे वैसे हमको इसमें ग्रोथ देखने को भी मिलती है। 

     ईटीएफ की बात करें तो इनका रियल टाइम होता है, याने की एक बार फंड आने पर उसको सारे इन्वेस्टर में डिस्ट्रीब्यूट कर लिया जाता है। और इनके बीच ही आपस में ट्रेड किया जाता है। याने कि जिस तरह स्टॉक्स के प्राइस में समय समय में बदलाव होता रहता है, उसी तरीके से ये भी एक्सचेंज में ट्रेड होते रहते हैं। 

(ii)- मैनेजमेंट – 

      म्यूचुअल फंड में मैनेजमेंट सिस्टम जो होता है, वह एक्टिव होता है, याने की फंड मैनेजर को डेली बेसिस में रेगुलर स्टॉक्स को ट्रैक किया जाता है, जिनमें की मैनेजर द्वारा स्टॉक्स में इनवेस्ट किया होता है। 

     इंडेक्स फंड और ईटीएफ में मैनेजमेंट पैसिव होता है। क्योंकि इनमे एक पार्टिकुलर इंडेक्स में ही इनवेस्ट किया जाता है। इंडेक्स में इनवेस्ट करने के बाद इसको हमेशा हमेशा ट्रैक न कर के सीधे क्वार्टर रिजल्ट के आने के बाद अपडेट किए जाते हैं।

या फिर जैसे जैसे स्टॉक्स इंडेक्स में आते रहते हैं तो उनमें इनवेस्ट कर लिए जाता है, और जो स्टॉक्स बाहर हो जाते हैं, उनको इंडेक्स से बाहर निकाल लिया जाता है। 

(iii)- एक्सपेंस रेश्यो – 

     म्यूचुअल फंड का एक्सपेंस रेश्यो हाई होता है यह लगभग 1 से 2 % तक होता है। इंडेक्स फंड का एक्सपेंस रेश्यो मीडियम होता है, यह लगभग 0.1 से 0.3% तक होता है। ईटीएफ का एक्सपेंस रेश्यो बहुत कम काशकर कि इक्विटी में 0.01 से शुरू हो जाते हैं। 

(iv)- डीमैट अकाउंट –

      म्यूचुअल फंड में और इंडेक्स फंड में ट्रेड करने के लिए कोई भी डीमैट अकाउंट की जरूरत नही पड़ती है। लेकिन ईटीएफ में ट्रेड करने के लिए हमें डीमैट अकाउंट ( Demat Account ) की जरूरत पड़ती है। 

(v)- लिक्विडिटी –

     म्यूचुअल फंड और इंडेक्स फंड में हाई लिक्विडिटी होती है। लिक्विडिटी से मतलब अधिक मात्रा में ट्रेड करने से होता है। जिससे की हमे प्राइस को सेल या लेने के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ता है। जबकि ईटीएफ में लिक्विडिटी बहुत ही कम होती है, क्योंकि इसमें लोग कम ही ट्रेड करते हैं।

(vi)- बेस्ट –

    म्यूचुअल फंड की बात करें तो म्यूचुअल फंड की इन्वेस्टमेंट स्माल और मिड कैप कंपनियों में होती है। जबकि इंडेक्स और ईटीएफ की इन्वेस्टमेंट लार्ज कैप कंपनियों में होती है।

       लार्ज कैप कंपनियां पहले से बड़ी हो चुकी होती हैं तो इनसे हमको कुछ ज्यादा रिटर्न्स देखने को नहीं मिलता है। परंतु यदि हम स्माल या फिर मिड कैप की बात करें तो ये कंपनियां अभी छोटी है और इनमें इस समय सही इनवेस्ट करने पर हमको अधिक रिटर्न्स मिल सकते हैं। 

कहां इनवेस्ट करें – 

       मेरे हिसाब से तो ईटीएफ एक बेस्ट इन्वेस्टमेंट रहेगी, लेकिन इसकी मुख्य समस्या यह है की इसमें अभी लिक्विडिटी बहुत ही ज्यादा कम है, यदि हम अमेरिका जैसे देशों की बात करें तो वहां ईटीएफ में बहुत अधिक लिक्विडिटी होती है, लेकिन अभी अन्य देशों में लिक्विडिटी बहुत ही कम है। मेरे हिसाब से आने वाले कुछ सालों में ईटीएफ में भी लिक्विडिटी काफी अच्छी रहेगी। 

      यदि आप नए इन्वेस्टर्स हैं तो मेरा आपको सजेशन यह रहेगा की अभी आप इंडेक्स फंड में ही अपनी इन्वेस्टमेंट करें। यदि आप पैसिव फंड में ही इनवेस्ट करना चाहते हैं, तो। और जैसे जैसे आपको मार्केट में एक्सपीरियंस होता रहेगा वैसे वैसे आप अपनी इन्वेस्टमेंट को बदल करके ईटीएफ में ट्रांसफर कर सकते हैं। क्योंकि यदि आप लॉन्ग टर्म की बात करें तो इंडेक्स फंड किसी भी स्टॉक्स को टक्कर दे सकता है।

इसलिए आपको इंडेक्स फंड से ही शुरुआत करनी चाहिए जिसमे कि काम रिस्क के साथ साथ एक अच्छा रिटर्न्स भी मिल जाता है। 

      अब लोगों के मन में सवाल यह आता है, कि जब इंडेक्स फंड को कोई भी म्यूचुअल फंड बीट नहीं कर सकता है, तो हम म्यूचुअल फंड में इनवेस्ट ही क्यों करें। तो आपको बता दें कि बहुत से लोग अपनी इन्वेस्टमेंट को लॉन्ग टर्म तक होल्ड नहीं कर पाते।

शॉर्ट टर्म में म्यूचुअल फंड का टारगेट ही यह रहता है कि हम किस तरीके से इंडेक्स को बीट कर सकें। और यह कर भी लेते हैं। क्योंकि यहां बहुत ही एक्सपीरियंस फंड मैनेजर होते हैं, जो इनको ट्रैक करते रहते हैं। और जब यह अपना इतना एफर्ट डाल रहें हैं तो सामान्य बात है कि यह अपना एक्सपेंस रेश्यो थोड़ा ज्यादा रखें। इसी वजह से म्यूचुअल फंड में एक अच्छे रिटर्न्स के साथ साथ एक्सपेंस रेश्यो भी हाई होता है।