स्टॉक मार्केट ऑपरेटर (Stock market operator)

दोस्तों आज की इस पोस्ट में हम जानेंगे, Stock market operator के बारे में। आपने बहुत बार लोगों के मुंह से यह जरूर सुना होगा कि इस स्टॉक में आज इतनी प्वाइंट की रैली देखने को मिली। या फिर इस स्टॉक का वॉल्यूम आज अन्य दिनों के मुकाबले बहुत अधिक है। तो इसमें पक्का Stock Market operator घुसा होगा।

तो चलिए दोस्तों आज की यह पोस्ट Stock market operator के नाम। आज हम Stock market Operator के बारे में विस्तार से जानेंगे। कि आखिर ये होते कौन हैं, और इनके पसंदीदा स्टॉक कौन से होते हैं।

स्टॉक मार्केट ऑपरेटर (Stock Market operator)

विवरण – जितने भी रिटेल इंवेस्टर होते हैं, उनका सबसे बड़ा नुकसान उनके डर से होता है। और इस कमजोरी का ही फायदा Stock market Operator द्वारा उठाया जाता है।

Stock market Operator

Stock market Operator के पास बहुत अधिक मात्रा में पैसा होता है। जिससे की वह किसी भी शेयर को अधिक क्वांटिटी में खरीद करके उस शेयर को आसानी से मैन्युकुलेट कर लेते हैं। और रिटेल निवेशक सस्ते के चक्कर में इन स्टॉक में फंस कर रह जाते हैं।

स्टॉक मार्केट ऑपरेटर कैसे काम करता है–

Stock market Operator के द्वारा कुछ इस तरह से स्टॉक के साथ खेल किया करते हैं, जिससे रिटेल निवेशकों को फंसाया जा सके। उनके द्वारा ऐसे स्टॉक में काफी अधिक मात्रा में पैसे लगाए जाते हैं, जिनका कोई भी फ्यूचर नही होता है। और यह ऐसे स्टॉक होते हैं, जो हर किसी को सस्ते दाम में मिल रहे होते है, ताकि हर कोई रिटेल निवेशक इन्हें लेने में सक्षम हो।

जो भी नए निवेशक होते हैं, वह हमेशा सस्ते शेयर में ही अपना फ्यूचर समझते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है, कि कम प्राइस में ज्यादा शेयर उनको मिल जाएंगे। लेकिन stock market operator द्वारा इन शेयर को ऑपरेट किया जाता है। और जैसे ही इन शेयर में ऑपरेटर को अच्छा पैसा दिखने लगता है, वैसे ही वह इन सब शेयर को एक साथ बेच देते हैं। और रिटेल निवेशक को भारी नुकसान देखने को मिलता है।

ऑपरेटर छोटे निवेशकों को क्यों फंसाते हैं–

ऑपरेटर को यह बात अच्छे से पता होती है, कि छोटे निवेशक बड़ी आसानी से लालच में फंस जाते हैं। इसके साथ साथ जो नए निवेशक होते हैं, उनके पास डर काफी अधिक होता है, जिस वजह से वह महंगे शेयर लेने की जगह बेकार के सस्ते शेयर खरीदना चाहते हैं। इसके साथ साथ वह पैनी स्टॉक में पैसे काफी अधिक लगाते हैं। इसके साथ साथ वह news based stocks में पैसा लगाते हैं।

ऑपरेटर से कैसे बचें–

नए निवेशक को हमेशा ही फंडामेंटल स्ट्रॉन्ग शेयर को ही चुनना चाहिए। इसमें यदि नए निवेशक अपना निवेश करते हैं, तो छोटी अवधि में उन्हें नुकसान देखना पड़ सकता है। लेकिन लंबी अवधि के अंतर्गत उन्हे एक अच्छा रिटर्न्स ही देखने को मिलेगा।

असल मायने में ऑपरेटर वह होते हैं, जिनके पास बहुत अधिक पैसा होता है, ये आपके ब्रोकर भी हो सकते हैं, या फिर म्यूचुअल फंड हाउस भी हो सकते हैं, या फिर कोई बड़े इंस्टीट्यूशन भी हो सकते हैं। लेकिन हमें इनसे बच कर रहना है, इससे बचने के लिए हमें अच्छे फंडामेंटल स्ट्रॉन्ग शेयर में ही अपना निवेश करना चाहिए।

जिन कंपनियों का मार्केट कैप बहुत बड़ा होता है। उन कंपनियो में ऑपरेटर के पैसों का अधिक असर नहीं पड़ता है। और वह कंपनियां 1 से 2 प्वाइंट भी मुश्किल से बढ़ पाती है। इसलिए आप उन कंपनियो में भी अपना निवेश कर सकते हैं, जिनका मार्केट कैप काफी बड़ा होता है।

Working Capital

चाहे कोई भी बिजनेस हो, अगर हमें उसे चलाना है, तो उसके लिए हमें पैसों की जरूरत होती है, और इसी बिजनेस में आय दिन बहुत सारा खर्चा कच्चे माल को खरीदने से लेकर उसको बेचने तक की प्रोसेस तक पड़ते हैं। बिजनेस रिलेटेड काम में मदद करने के लिए इसमें एक शब्द आता है, Working Capital,

तो चलिए आपको बताते हैं, की यह आखिर Working Capital क्या होता है। और यह किसी भी बिजनेस में अपनी किस तरीके से अहम भूमिका निभाता है।

Working Capital

Working Capital –

Working Capital वह राशि होती है, जिससे आप किसी भी बिजनेस की शॉर्ट टर्म की क्षमता को समझ सकते हैं। सरल शब्दों में कहें तो वर्तमान एसेट और वर्तमान में चल रहे कर्ज के बीच के अंतर को Working Capital कहा जाता है।

दूसरे तरीके से बतलाऊं तो किसी भी व्यापार के दैनिक कार्यों को सुचारु रूप से चलने के लिए जिस पूंजी की आवश्यकता होती है उसे ही हम Working Capital यानि की कार्यशील पूंजी के नाम से जानते हैं। इसके साथ साथ व्यापार के विस्तार करने के लिए भी वर्किंग कैपिटल हमारे व्यापार में प्रयाप्त मात्रा में होना चाहिये।

वर्किंग कैपिटल ( Working Capital ) का फॉर्मूला

वर्किंग कैपिटल = वर्तमान संपति – वर्तमान कर्ज

Working Capital = current Asset – Current Liabilities

किसी भी बिजनेस को चलाने से पहले हमको वित्त की पूरी जानकारी होनी चाहिए। कि आखिर इसमें कितना कैपिटल कहां लगेगा, और कितना इसका खर्चा आएगा। और यदि आप प्रत्येक दिनों में भी अपने बिजनेस के लिए पूंजी का प्रबंधन नहीं कर सकते तो फिर आप व्यापार में कभी सफल नहीं हो पाएंगे। Working Capital आपका वर्तमान संपति और चल रहे कर्ज के बीच अंतर का परिणाम होता है, जोकि आपको बिजनेस समझाने में मदद करता है।

कोई भी व्यापार छोटा और बड़ा नही होता है, ऐसा नहीं है, की यदि आपका बिजनेस बड़ा है तो तब ही आपको Working Capital की जरूरत पड़ेगी, बल्कि यह प्रत्येक बिजनेस के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। इसमें आपका अल्पकालिक संपति और अल्पकालिक देनदारी के बीच संबंध इसमें शामिल हुआ होता है।

इसका मुख्य उद्देश्य वर्तमान संपति और लेन देनदारियों की मात्रा को तय करना होता है। ताकि छोटे पूंजी को भी अधिक प्रयोग की जा सके। इसके प्रबंधन में नकदी के रूप में प्रायः सूची, लेखा और देय प्रबंधन आदि को शामिल किया जा सकता है।

Working Capital प्रबंधन–

Working capital प्रबंधन के लिए पैसों का रूपांतरण चक्र को फर्म की जा सकता है। इसको आपको एक उद्धरण से समझाते हैं, माना कोई इलेक्ट्रॉनिक का डीलर है, और वह दूसरे इलेक्ट्रॉनिक डीलर को अपना सामान बेचता है, और वह अपने खर्चे को कम करना चाहता है।

इसके साथ साथ वह दूसरे इलेक्ट्रॉनिक डीलर के ग्राहक के भुगतान में भी तेजी लाने के लिए आग्रह कर सकता है, कि वह अधिक खर्च खर्च से बचने के लिए कच्चा माल खरीदने से भी समझदार हो सकता है। और यह बता सकता है, की उसके पास अब और एक्स्ट्रा स्टॉक्स नही हैं। इस तरीके से आपको वर्किंग कैपिटल में सही संतुलन बनाकर रखना चाहिए।

Working Capital लोन एक तरह का शॉर्ट टर्म लोन होता है। इस लोन के उद्देश्य से चाहे कोई भी बिजनेस हो, उसमे बिजनेस साइकिल के दौरान बहुत अधिक पैसा लग सकता है। जिससे की बिजनेस में पैसों की कमी पड़ सकती है। इसका मुख्य उद्देश्य यह भी है, कि वह बिजनेस को अच्छे से चलाने के लिए कम फंड में भी इस कमी को पूरी कर सके।

वर्किंग कैपिटल साइकिल –

Working Capital को तो आप समझ ही गए होंगे, लेकिन यदि आपको अभी भी कहीं पर डाउट है, तो आप वर्किंग कैपिटल साइकिल को समझने के साथ साथ इसको भी बड़े अच्छे से समझ जाएंगे।

Working capital

Working capital cycle को कैश साइकिल भी कहा जाता है। इसकी जो शुरुआत होती है, वह कच्चे माल से शुरू की जाती है। और जब उत्पादन का कार्य शुरू होता है, जिसे की हमारे द्वारा Work in progress कहा जाता है। इसमें ही हमको रुपयों की जरूरत पड़ती है।

उत्पादन होने के बाद जो प्रोडक्ट बनता है, उसे Finished goods कहते हैं। और इसके बाद ही सेल्स का को काम होता है, वह शुरू हो जाता है। और जैसे ही हमारे द्वारा माल को बेचा जाता है, तो हमको उसी समय तुरंत पैसा नही मिलता है। बल्कि इसका भी एक टाइम पीरियड होता है, जिसके बाद हमें कैश मिल पाता है।

प्रोडक्ट बनाने से लेकर कैश मिलने तक का सफर या फिर प्रोसेस को वर्किंग कैपिटल साइकिल कहते हैं। अब इतनी बड़ी प्रोसेस के बीच जो खर्चे होते हैं, उसकी कमी भी दूर इसी से ही करनी पड़ती है। जिसको की हमारे द्वारा कैश कन्वर्जन साइकिल कहा जाता है।

इसके लिए मुख्य कुछ दस्तावेजों की जरूरत पड़ती है, जिसे की आगे लिखा गया है।

1– आधार कार्ड ( Adhaar Card )

2– पैन कार्ड ( Pan Card )

3– पिछले 3 सालों की इनकम टैक्स की स्लैब और आय।

4– पिछले 2 सालों की ऑडिट रिपोर्ट और ऑडिट फाइनेंशियल।

What is Sensex and Nifty

वैसे तो मैने आपको sensex and nifty के बारे में पिछली पोस्ट में बता दिया था, कि आखिर यह क्या होता है। लेकिन आज मैं आपको दोनो के बीच डिफरेंस बताने वाला हूं की इन दोनो में अंतर क्या है, और यह किस तरीके से एक दूसरे से अलग हैं।

हम में से ही बहुत बार लोग जब टीवी, अखबार, रेडियो या फिर कुछ अन्य चीजें सुनते हैं, तो हमने sensex and nifty का नाम काफी बार सुना होता है, और हम यह जानने की कोशिश करते हैं की आखिर यह होता क्या है, और जब इसे अखबार में देखते हैं, तो हमको यह समझ में नहीं आता की आखिर इसमें नंबर क्यों दिए हुए हैं। और इसका इससे क्या लेना देना है।

तो चलिए आपको बताते हैं कि sensex and nifty क्या हैं। और इनमे आखिर अंतर क्या है।

sensex and nifty

Sensex and Nifty क्या हैं?

सेंसेक्स ( Sensex )

Sensex एक मार्केट एक्सचेंज है, जिसमे कि देश के सबसे बड़े अलग अलग सेक्टर के 30 बड़ी कंपनियां शामिल हैं। और इन 30 कंपनियो को इसमें इंडेक्स किया जाता है। इन कंपनियों में विख्यात कंपनियां रिलायंस, टीसीएस, एचडीएफसी, इन्फोसिस जैसी बड़ी कम्पनियां शामिल हैं। इसकी शुरुआत 1986 में हुई थी।

इसको BSE 30 नाम से भी जाना जाता है। इसकी वजह यह है, क्योंकि इसमें 30 कंपनियाँ शामिल हैं। और यह एक तरीके से देश की अर्थव्यवस्था को भी दर्शाते हैं। इन कंपनियों के उतार चढ़ाव से ही शेयर मार्केट की स्तिथि का पता चलता है, और इसके साथ इकोनॉमी का भी।

निफ्टी ( Nifty )

Nifty जो होता है, उसको हम निफ्टी 50 के नाम से भी जानते हैं। और यह नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के अंतर्गत आता है। निफ्टी में देश की टॉप के 50 कंपनियां शामिल हैं। और यह भी कहीं न कहीं हमारी इकोनॉमी पर प्रभाव डालती हैं। इन कंपनियों में देश के 13 अलग अलग सेक्टर से 50 कंपनियों को चुना जाता है। और इन्ही कंपनियों को निफ्टी 50 नाम से जाना जाता है। निफ्टी की शुरुआत 1994 में की गई थी। और निफ्टी के कंपनियों के उतार चढ़ाव से भी शेयर मार्केट के उतार चढ़ाव में इफेक्ट पड़ता है।

Sensex और Nifty में मुख्य अंतर –

Sensex and nifty में जो सेंसेक्स है, वह बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (Bombay Stock Exchange) के अंतर्गत आता है। जबकि निफ्टी नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (Naitional Stock exchange ) के अंतर्गत आता है। सेंसेक्स में टॉप की 30 कंपनियां और निफ्टी में टॉप की 50 कंपनियां आती हैं। सेंसेक्स का बेस वैल्यू 100 का जबकि निफ्टी का 1000 का होता है।

उम्मीद करता हूं, की आपको मेरे द्वारा बताए Sensex and Nifty में क्या अंतर होता है। अच्छे से समझ आ गया होगा।

Redeemable Preference Share

Redeemable preference share

प्रेफरेंस शेयर –

       Redeemable preference share को जानने से पहले प्रेफरेंस शेयर ( preference share ) को जान लेते हैं। जिन भी लोगों के पास प्रेफरेंस शेयर होते हैं, वह प्रेफरेंस शेयर होल्डर कहलाते हैं। और जो ये शेयर होल्डर होते हैं, उनकी कंपनी के अंदर ओनरशिप होती है। परंतु इनके पास कोई भी वोटिंग राइट्स नहीं होती है। मतलब की यदि कंपनी में किसी को डायरेक्टर या फिर सीओ चुनना है, तो इसमें ये शेयर होल्डर वोटिंग नही कर सकते हैं।

  इन शेयर होल्डरों का डिविडेंड फिक्स्ड होता है। और यदि कभी कंपनी बंद होने के कगार में आ जाए, या फिर बैंक क्रैप्सी हो जाए, तो इस कंडीशन में प्रेफरेंस शेयर होल्डर को कॉमन शेयर होल्डर की तुलना में पहले पैसा मिलता है। तो चलिए जानते है, कि Redeemable preference share क्या होता है। प्रेफरेंस शेयर के बहुत से प्रकार होते हैं। उनमें से आज रिडीमेबल प्रेफरेंस शेयर और Non Redeemable preference share के बारे में जानेंगे।

Redeemable preference share  (रिडीमेबल प्रेफरेंस शेयर)–

Redeemable preference share का नाम से ही पता चल रहा है, कि वे शेयर जिनको कंपनी को वापस करना होता है। याने की इसमें एक फिक्स्ड डेट दी हुई होती है, जिसके अंदर की हमको कंपनी के शेयर को वापस करने होते हैं। 

यह फिक्स्ड डेट आपकी 5–10 या फिर कुछ अलग सालों की हो सकती है। और कंपनी ने आपको जिस प्राइस में शेयर को इश्यू करवाया होगा। समय पूरा होने पर कंपनी आपसे उसी शेयर प्राइस में शेयर को वापस ले लेगी। और उसके बदले में कंपनी आपको आपके कैपिटल के साथ साथ आपको एक फिक्स्ड रिटर्न्स प्रोवाइड करेगी।

 कोई भी शेयर होल्डर इनको अपने पास नहीं रख सकते हैं। और समय पूरा होने पर कंपनी के द्वारा शेयर के बदले में पैसे आपको दे दिए जाते हैं। किसी भी कंपनी में हर बार रिडीमेबल प्रेफरेंस शेयर ही इश्यू किए जाते हैं।

* प्रेफरेंस शेयर ( Preference share ) के प्रकार।

बॉन्ड और डिबेंचर के प्रकार।

* फ्यूचर और ऑप्शन ( Future or Option )

Non Redeemable preference share (नॉनरिडीमेबल प्रेफरेंस शेयर) –

नॉनरिडीमेबल प्रेफरेंस शेयर का मतलब यह है, कि वह शेयर तब तक रिडीम नही होंगे, जब तक की कंपनी चल रही है। जब कंपनी बंद होती है, उस समय शेयर होल्डर का केपिटल और साथ में इंटरेस्ट उसे वापस दे दिया जाता है। सीधे शब्दों में कहें तो  इनको कंपनी वापस नहीं ले सकती है। और शेयर होल्डर इन्हे अपने पास रख सकता है। नॉनरिडीमेबल प्रेफरेंस शेयर सामान्यत बहुत ही कम जगह में प्रयोग होते हैं, इंडिया में भी यह अलाउड नहीं है।

ETF fund

ETF fund

what is ETF fund | हिन्दी में |

     ETF fund का पूरा नाम एक्सचेंज ट्रेडेड फंड है। इसके नाम से ही पता चलता है, कि यह कहीं न कहीं एक्सचेंज में ट्रेड करता है। साथ ही आपको यह भी बता दें, कि जैसे इंडेक्स फंड और म्यूचुअल फंड में हमें डीमैट अकाउंट की जरूरत होती है।
 
ETF fund में इनवेस्ट करने के लिए हमको किसी भी डीमैट अकाउंट की जरूरत नही होती है। तो चलिए आपको यह बता देते हैं, कि यह किस तरीके से काम करता है।
 

ETF fund कैसे काम करता है–

      जैसे किसी कंपनी को जब फंड जमा करना होता है, तो उस समय कंपनी अपना आईपीओ निकालती है, और इन्वेस्टर्स से अपने लिए आईपीओ ( IPO ) से फंड जमा करती है।
 
ठीक उसी तरह ईटीएफ भी काम करता है, जब ईटीएफ को फंड की जरूरत होती है, तो वह NFO ( न्यू फंड ऑफर ) को निकालती है। लेकिन इसमें जब ETF fund जमा करता है, तो उसके बाद उसमे कोई भी बदलाब नही हो पाता है, इसको एक उद्धरण से समझते हैं,
 
जैसे ETF fund ने 500 करोड़ इन्वेस्टर्स से जमा किए हैं, तो AUM ( एसेट अंडर मैनेजमेंट ) 500 करोड़ ही रहने वाला है। जैसे कंपनी एक्सचेंज में लिस्ट हुई रहती है, यह भी कंपनी की तरह ही एक्सचेंज में लिस्ट हुआ रहता है, और सभी कंपनियों की तरह जो एक्सचेंज में लिस्ट हुई रहती हैं, उनकी तरह ही इसमें ट्रेड किया जाता है। जिसके द्वारा जितना इन्वेस्टमेंट किया जाता है, वह उसका उतना ही हिस्सेदार बन जाता है।
 

ETF fund के प्रकार –

      वैसे तो अमेरिका जैसे देशों में या फिर किसी अन्य देशों में ETF fund के बहुत से प्रकार होते हैं लेकिन मुख्य तौर से इंडिया में ईटीएफ के 3 ही प्रकार देखे गए हैं।
 
1– इक्विटी
2– डेट,
3– कमोडिटी,
 
(i)– इक्विटी – इसमें ETF द्वारा मुख्य रूप से स्टॉक्स में इनवेस्ट या फिर इनको फॉलो किया जाता है। सही समय आने पर इनमे ही इनवेस्ट कर दिया जाता है।
 
(ii)– डेट – इसमें ETF द्वारा सरकारी बॉन्ड्स या फिर किसी प्राइवेट कंपनी में इनवेस्ट किया जाता है।
 
आपके मन में यह सवाल आ रहा होगा कि यदि जब ये भी इनमे ही इनवेस्ट करेंगे तो इससे अच्छा तो हम सीधे ही इनमे क्यों न इनवेस्ट कर दें, तो आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि यदि पहले तो ये एक्सचेंज में लिस्ट नही होते हैं, और यदि जो हुए भी होंगे तो उनमें हमको लिक्विडिटी देखने को नहीं मिलती है, और बहुत ही कम ट्रेड होता है।
 
इसके साथ ही इसमें हमको मैच्योरिटी डेट का इंतजार भी नही करना पड़ता है। यदि हम सीधे इनवेस्ट न करके इनके जरिए पैसे लगाते हैं।
 
(iii)– कमोडिटी – इसमें ETF fund द्वारा गोल्ड, सिल्वर, ऑयल आदि में इनवेस्ट किया जाता है। और मुख्य रूप से इसमें गोल्ड में ज्यादा इनवेस्ट किया जाता है।
 
 
 

एक्सपेंस रेश्यो –

      ईटीएफ का एक्सपेंस रेश्यो बहुत ही कम होता है। इसका एक्सपेंस रेश्यो म्यूचुअल फंड के मुकाबले बहुत ही सस्ता 0.01 से शुरू होता हैं। लेकिन यदि हम किसी सेक्टोरियल ईटीएफ की बात करें जैसे फार्मा सेक्टर, आईटी सेक्टर आदि। तो इनकी फीस थोड़ा ज्यादा 0.1 से 0.3 % तक होती है।
 
(ii)– यदि हम डेट ईटीएफ की बात करें तो इसका एक्सपेंस रेश्यो 0.1 से 0.3 % तक होता है।
 
(iii)– कमोडिटी ईटीएफ का एक्सपेंस रेश्यो 0.5 से 1% तक होता है।
 

टैक्स इंप्लीकेशन – 

       यदि ईटीएफ के टैक्स इंप्लीकेशन की बात करें तो इसके अलग अलग रूल हैं। और टैक्स हमेशा प्रॉफिट की ही कंडीशन में पड़ता है। यदि आपको घाटा हुआ है, तो फिर आपको कोई भी टैक्स नहीं देना पड़ता है।
 
(i)– इक्विटी ईटीएफ में 1 साल में 1 लाख तक प्रॉफिट होने में कोई भी टैक्स नहीं लगता है। लेकिन यदि आपका प्रॉफिट इससे ज्यादा का हुआ है, तो इसके भी आपको लॉन्ग या फिर शॉर्ट टर्म के हिसाब से टैक्स पे करना पड़ता है।
 
     शॉर्ट टर्म की बात करें तो इसमें कम से कम 1 साल से पहले अपनी इन्वेस्टमेंट को तोड़ने से है। और इसमें टैक्स 15% तक लगता है। और यदि लॉन्ग टर्म को देखें तो यह 1 साल से अधिक इन्वेस्टमेंट के लिए कहा जाता है, इसमें आपको टैक्स 10% तक देना पड़ता है।
 
(ii)- डेट ईटीएफ और गोल्ड ईटीएफ में 3 साल से पहले बेचने पर इसको शॉर्ट टर्म की नजर से देखा जायेगा जिसमे की आपको टैक्स आपको अपनी इनकम स्लैब के हिसाब से देना होगा। और तीन साल की अधिक अवधि होने पर इसे लॉन्ग टर्म से देखा जायेगा जिसमे की आपको टैक्स लगभग 20% तक देना होगा।
 

ETF fund में इनवेस्ट क्यों करें–

  ETF fund में इनवेस्ट करने के बहुत से फायदे हैं, जिनकी वजह से यह कहा जा सकता है, कि हमें ईटीएफ में भी इनवेस्ट करना चाहिए।
 
(i)– ETF fund में एक तो लॉ कॉस्ट होती है, जोकि इंडेक्स फंड और म्यूचुअल फंड के मुकाबले बहुत ही कम है। और जब यह कॉस्ट इतनी कम है तो लॉन्ग टर्म में यह हमें एक अच्छा रिटर्न्स देता है।
 
(ii)– इसको हम कभी भी खरीद या फिर बेच सकते हैं।
 
ETF fund की लिमिटेशन – इसमें ट्रेडिंग कॉस्ट इंवॉल्व होता है। जैसे की स्टॉक्स में होता है। और इसमें सिक्योरिटी ट्रांजेक्शन टैक्स भी लगता है।
 
(ii)– आज की डेट में ETF fund में लिक्विडिटी बहुत ही कम है, जैसे की अमेरिका जैसे देश में है, उस तरीके की लिक्विडिटी हमको इंडिया जैसे देश में देखने को नहीं मिलती है। इसके लिए हमको इसका वॉल्यूम चेक कर लेना चाहिए। कि इसमें लिक्विडिटी है की नही।
 

ईटीएफ में इनवेस्ट करते समय क्या देखना चाहिए–

(i)– इसमें इनवेस्ट करते समय हमको इसका ट्रैकिंग एरर चेक कर लेना चाहिए। जितना कम इसका ट्रैकिंग एरर होगा उतना ही अच्छा हमारे लिए होगा।
 
(ii)- जितना कम इसका एक्सपेंस रेश्यो होगा उतना ही सही हमारे लिए होगा। क्योंकि इसमें हमको कम कॉस्ट देनी होती है। और कम कॉस्ट की वजह से हमको एक अच्छा रिटर्न्स देखने को मिलता है।
 
(iii)- इसमें हमको लिक्विडिटी चेक कर लेना चाहिए। लगभग 1000 से अधिक डेली ट्रेडेड वॉल्यूम होना चाहिए।
 

Market capitalization

Market capitalization

Market capitalization (मार्केट केपीटलाइजेशन )

          Market capitalization एक कंपनी के साइज और टोटल वैल्यू को दर्शाती है। अर्थात Market capitalization किसी कंपनी के बारे में बताती है, कि वह कंपनी कितनी बड़ी है, सीधे शब्दों में कहें तो यह एक कंपनी के शेयर की टोटल मार्केट वैल्यू होती है। Market capitalization को कैलकुलेट करने के लिए एक कंपनी के टोटल आउटस्टैंडिंग शेयर को करंट मार्केट प्राइस मतलब की जो शेयर का अभी वर्तमान में प्राइस चल रहा है, को ऑफ शेयर से मल्टीप्लाई कर देते हैं।

Market capitalization = टोटल नंबर ऑफ आउटस्टैंडिंग शेयर × करंट मार्केट प्राइस (per share )

इसमें आउटस्टैंडिंग शेयर का मतलब यह है कि जिस  शेयर को करेंटली स्टॉकहोल्डर, कंपनी का जो ऑफिशियल और पब्लिक इन्वेस्टर अपने पास शेयर रखते हैं। आपको बता दें, कि आउटस्टैंडिंग शेयर में मालिक के शेयर को नही जोड़ा जाता है।

उदाहरण के लिए – माना कोई कंपनी x है, जिसके टोटल नंबर ऑफ आउटस्टैंडिंग शेयर 2 लाख है। और करंट शेयर प्राइस 1000/ शेयर है।

तो x कंपनी की मार्केट कैप = 2 लाख × 1000 = 20 करोड रुपए। अर्थात 20 करोड़ रुपए उस कंपनी का Market capitalization हो जायेगा।

Market capitalization के प्रकार –

भारतीय स्टॉक मार्केट में Market capitalization को तीन भागों में बांटा गया है।

1- large cap,
2- mid cap,
3 – small cap,

इनमें cap का मतलब capitalisation से होता है।

1- large cap companies –

लार्ज कैप कंपनियों में वे कंपनियां आती हैं जिनका मार्केट वैल्यू $10 billion या उससे ज्यादा का होता है। सेबी के अनुसार चलें तो स्टॉक मार्केट में Market capitalization के आधार पर लगभग टॉप 1st से 100 कंपनी लार्ज कैप के अंदर आती हैं।

  इन कंपनियों का काफी बड़ा नाम होता है, और इन कंपनियों के बारे में लगभग सभी ने सुना रहता है। ये कंपनियां बहुत पुरानी होती है। इन कंपनियों में निवेश करने पर कम समय में लाभ नहीं होता परंतु यदि अधिक समय के लिए इन्वेस्ट करें तो इन कंपनियों में हमें एक अच्छा खासा रिटर्न देखने को मिल जाता है। लार्ज कैप कंपनी के उदाहरण दें, तो यह google, amazon, apple, Facebook आदि हैं।

2- Mid cap companies –

मिड कैप कंपनियों में वे कंपनियां आती हैं, जिनकी मार्केट वैल्यू लगभग $2billion से $10 billion के बीच होता है। सेबी के माने तो लगभग टॉप के 101 से 250 कंपनी में मिड कैप कंपनी के अंदर आती है। मिड कैप कंपनीज के आगे बढ़ने के अवसर काफी ज्यादा होते हैं। और साथ ही मिडकैप कंपनियां अगर टिके रहे तो वह जल्द ही लार्ज कैप के अंदर आ जाती हैं। परन्तु मिड कैप जो कंपनियां होती हैं उन में लार्ज कैप कंपनी के मुकाबले थोड़ा ज्यादा रिस्क होता है।

* बॉन्ड ( Bond ) क्या होता है।

* स्मॉल केस ( Small case ) क्या होता है।

* टीडीएस ( TDS ) क्या होता है।

Small cap companies –

स्माल कैप कंपनियों के अंदर वे कंपनियां आती हैं, जिनकी मार्केट वैल्यू लगभग $300 million से $2 billion के बीच होता है, या फिर उनसे भी कम। इन कंपनियों का विस्तार कुछ ज्यादा बड़ा नहीं होता। इन कंपनियों के बारे में लगभग किसी ने सुना भी नही रहता है। क्योंकि यह कंपनियां नई होती हैं। और साथ ही यह कंपनी कुछ निश्चित ही जगहों पर होती है।

   इन कंपनियों में इन्वेस्ट करने में बहुत अधिक रिस्क होता है। इनसे भी छोटी कंपनियों की बात करे तो फिर उन कंपनी को माइक्रो कंपनी कहा जाता है। जिनका मार्केट वैल्यू $50 मिलियन से $300 million के बीच होता है। लार्ज कैप और मिड कैप के मुकाबले इन कंपनी में बहुत ही ज्यादा रिस्क होता है। साथ ही इन कंपनियों को लार्ज कैप बनने में बहुत टाइम भी लग जाता है।

कंपनी अपना शेयर पब्लिक को क्यों बेचती है ?

किसी भी कंपनी को यदि बड़ा करना है, या फिर उस कम्पनी को दुनिया भर में फैलाना है, तो उसमें कंपनी का बहुत पैसा लगता है। या फिर कंपनी को अपने कर्ज उतारने हो, या फिर कंपनी को अपना ब्रांड वैल्यू क्रीट करना हो, तो इसलिए कंपनी लोगों से पैसे लेकर उन्हें शेयर बेचती है। जिससे की कंपनी को भी आसानी से पैसा मिल पाए। जिस प्रक्रिया से कंपनी लोगों को शेयर बेचती है। उसे आईपीओ ( IPO ) कहा जाता है।

  मतलब कि कंपनी लोगों से पैसे लेकर उन्हें अपनी कंपनी के शेयर प्रोवाइड करवाती है। और वह शेयर होल्डर को उस कंपनी की हिस्सेदारी मिल जाती है। जिससे कि कंपनी को और भी आगे बढ़ाया जा सकता है।

Value stock

value stock

Value stock (वैल्यू स्टॉक) 

वैल्यू स्टॉक वह स्टॉक होते हैं, जो अपने वर्तमान की स्तिथि में अपने आंतरिक मूल्य से नीचे ट्रेड करते रहते हैं, Value stock कहलाते हैं।

ये वे स्टॉक होते हैं, जो किसी कारणवश उस समय अपने रियल वैल्यू से कम में ट्रेड करती हैं। स्टॉक के आंतरिक मूल्य लाभांश, बिक्री, आय आदि स्टॉक के मूलभूत सिद्धांत जो होते हैं, उनके आधार पर बहुत से माध्यम से गणना की जाती है।

Value stock की पहचान–

Value stock की पहचान करने के बहुत से तरीके हो सकते हैं। आइए आगे देखें, आखिर इनकी पहचान कैसे की जा सकती है।

1- कभी-कभी Value stock उन कंपनियों से भी संबंधित होते हैं जिन्होंने कुछ ही समय पहले या फिर हालही में अपना आईपीओ बाजार में लॉन्च किया हो। और उस शेयर के बारे में जागरूकता अभी बाजार में कम है। ऐसी स्तिथि में भी value stock की पहचान करने का अच्छा ऑप्शन हो सकता है।

2- मुख्यत Value stock जो होते हैं, वे ज्यादातर स्थिर कंपनियों के ही होते हैं, अर्थात ये वे कंपनियां होती हैं, जो निरंतर लाभांश जारी करते रहते हैं। साथ ही ये जब अस्थाई रूप से प्रतिकूल घटनाओं का सामना कर रहे होते हैं।

3- जब एक कंपनी लगातार या फिर सुचारू रूप से अपने ऋण, कर्ज का पुनर्भुगतान कर रही होती है, जिसमें कि लगातार ब्याज लागत में कमी हो रही होती है। तथा मार्केट ने अभी तक किसी भी कारणवश शेयर मूल्य में इस तथ्य को नहीं लगाया हो।

4- जब एक कंपनी जो कि हमेशा घाटे को ही दर्शाती रहती है। या फिर नुकसान ही उस कंपनी को होता रहता हो और वह कंपनी अचानक से बदल गई हो, और पिछले कुछ महीनों से मुनाफा दिखा रही हो। और मार्केट ने अभी तक इसका अनुमान नहीं लगाया हो।

* ईटीएफ फंड ( ETF fund ) क्या हैं?

* Bitter truth of mutual fund

* बॉन्ड और डिबेंचर ( Bond or Debenture )

Value stock के मानदंड –

वैल्यू स्टॉक  के बहुत से मानदंड है।

1- कंपनी पर कर्ज की राशि – 

वित्तीय अनुपात एक ही उद्योग में कोई भी इक्विटी से स्वस्थ ऋण का जो अनुपात होना चाहिए वह 0.5 से कम होना चाहिए। कुछ उद्योग की कंपनियों के जो इक्विटी होते हैं, उसका जो अनुपात होता है, वह उसके कर्जे या ऋण से अधिक भी हो सकता है।

2- औसत गुणवत्ता रेटिंग – 

किसी भी स्टॉक को सर्वोत्तम रेटिंग देखकर या फिर उसे रेटिंग के हिसाब से खोजने की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि अधिकतर केस में ऐसा होता है कि वे स्टॉक  पहले से ही सही ढंग से मूल्यवान या फिर ज्यादा मूल्यवान है।

3- कोई कमाई ना होना – 

कंपनी के प्रति शेयर की कमाई पिछले कुछ वर्षों लगभग 5 वर्षों में पूरी तरह से उनकी कमाई घाटे के साथ चल रही है। इसलिए कंपनी के वित्तीय स्तिथि का चयन करने के लिए यह एक महत्वपूर्ण मानदंड है, जो कि कंपनियां पिछले कई सालों में हो रही कमाई को घाटे में दिखा रही है। उन कंपनियों में आपका निवेश करना ज्यादा सुरक्षित है।

4- कंपनी के करंट अनुपात –

किसी कंपनी के मौजूदा देनदारियों द्वारा उसके पास उपस्थित संपत्तियों को विभाजित करके अनुपात की गणना की जाती है। किसी भी निवेशक को यह निश्चित करना चाहिए कि अर्थव्यवस्था को सहन करने के लिए या फिर अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए किसी भी कंपनी के पास पर्याप्त पैसा है।

5- बुक वैल्यू और मूल्य का अनुपात –

बुक वैल्यू किसी भी कंपनी के मूल्य का एक अच्छा संकेत होता है। तथा निवेशक को ऐसे स्टॉक में निवेश करना चाहिए जिसकी बुक वैल्यू का अनुपात 1.20 तक हो। हमको एक अच्छे Value stock को खोजना चाहिए, जोकि बुक वैल्यू के नीचे व्यापार कर रहा हो।

6- कम्पनी के प्रबंधन को जानना –

Value stock का यह सबसे मुख्य मानदंडों में से एक होता है क्योंकि वैल्यू निवेश में लंबे समय तक कोई भी स्टॉक धारण करना शामिल होता है, और कठिनाइयों के समय में बचाव करने वाली सबसे बड़ी ताकत में से यह एक है।

7- डिविडेंड की जांच करना – 

यदि कोई कंपनी नियमित और लाभांश का भुगतान करती है, अर्थात किसी कंपनी को लगातार लाभ या फिर वह नियमित रूप से कंपनी को अच्छे तरीके से चला रही है तो प्रतीक्षा एक निवेशक को समाप्त नहीं करती है।